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अध्याय २३ : घरमै फेरफार और बाल-शिक्षा ३१७ बड़ी खुशीसे करते ।
यह तो नहीं कह सकते कि उनके अक्षर-ज्ञान अर्थात् पुस्तकी शिक्षाकी मैंने कोई परवाह नहीं की; परंतु हां, मैंने उसका त्याग करने में कुछ संकोच नहीं किया। इस कमी के लिए मेरे लड़के मेरी शिकायत कर सकते हैं और कई बार उन्होंने अपना असंतोष प्रदर्शित भी किया है । मैं मानता हूं कि उसने कुछ अंशतक मेरा दोष है । उन्हें पुस्तकी शिक्षा देने की इच्छा मुझे बहुत हुमा करती, कोशिश भी करता; परंतु इस कालमें हमेशा कुछ-न-कुछ विघ्न आ खड़ा होता। उनके लिए घरगर दूसरी शिक्षाका प्रबंध नहीं किया था। इसलिए मैं उन्हें अपने साथ पैदल दपतर ले जाता । दफ्तर ढाई मील था। इसलिए सुबह-शाम मिलकर पांच मीलकी कसरत उनको और मुझे हो जाया करती। रास्ते चलते हुए उन्हें कुछ सिखाने की कोशिश करता; पर वह भी जब दूसरे कोई साथ चलनेवाले न होते। दफ्तरमें मवक्किलों और मुंशियोंके संपर्क में वे आते, मैं बता देता था तो कुछ पढ़ते, इधर-उधर घूमते, बाजारसे कोई सामान-सौदा लाना हो तो लाते । सबसे जेठे हरिलालको छोड़कर सब बच्चे इसी तरह परवरिश पाये । हरिलाल देशमें रह गया था। यदि मैं अक्षर-ज्ञानके लिए एक घंटा भी नियमित रूपसे दे पाता तो मैं मानता कि उन्हें आदर्श शिक्षण मिला है। किंतु मैं यह नियम न रख सका, इसका दुःख उनको और मुशको रह गया है। सबसे बड़े बेटेने तो अपने जीकी जलन मेरे तथा सर्वसाधारणके सामने प्रकट की है। दूसरोंने अपने हृदयकी उदारतासे काम लेकर, इस दोषको अनिवार्य समझकर उसको सहन कर लिया है। पर इस कमीके लिए मुझे पछतावा नहीं होता और यदि कुछ है भी तो इतना ही कि मैं एक आदर्श पिता साबित न हुना। परंतु यह मेरा मत है कि मैंने अक्षरज्ञानकी आहुति भी लोक-सेवाके लिए दी है। हो सकता है कि उसके मूलमें अज्ञान हो; पर मैं इतना कह सकता हूं कि वह सद्भावपूर्ण थी। उनके चरित्र और जीवनके निर्माण करनेके लिए जो-कुछ उचित और आवश्यक था, उसमें मैंने कोई कसर नहीं रहने दी है और मैं मानता हूं कि प्रत्येक माता-पिताका यह अनिवार्य कर्त्तव्य है। मेरी इतनी कोशिशके बावजूद मेरे बालकोंके जीवनमें जो खामियां दिखाई दी हैं, मेरा यह दृढ़ मत है कि वे हम दंपतीकी खामियोंका प्रतिबिंब हैं।