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आत्म-कथा : भाग ४
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तुरंत मेरी दलील पट गई। भावी श्रीमती पोलक विलायत में थीं, उनके साथ चिट्ठी-पत्री हुई। वह सहमत हुई और थोड़े ही महीनों में वह विवाह के लिए जोहान्सबर्ग आ गई ।
विवाह खर्च कुछ भी नहीं करना पड़ा । विवाह के लिए खास कपड़ेतक नहीं बनाये गये और धर्म-विधिकी भी कोई आवश्यकता नहीं समझी। श्रीमती पोलक जन्मतः ईसाई और पोलक यहूदी थे। दोनों नीति-धर्म के मानने वाले थे ।
परंतु इस विवाह के समय एक मनोरंजक घटना होगई थी । ट्रांसवाल में जो कर्मचारी गोरोंके विवाहकी रजिस्ट्री करता वह कालेके विवाहकी नहीं करता था । इस विवाह में दोनोंका पुरोहित या साक्षी में ही था । हम चाहते तो किसी गोरे-मित्रकी भी तजवीज कर सकते थे; परंतु पोलक इस वातको बरदाश्त नहीं कर सकते थे, इसलिए हम तीनों उस कर्मचारी के पास गये। जिस विवाहका मध्यस्थ एक काला आदमी हो उसमें वर-वधू दोनों गोरे ही होंगे, इस बातका विश्वास सहसा उस कर्मचारीको कैसे हो सकता था ? उसने कहा कि में जांच करने के बाद विवाह रजिस्टर करूंगा । दूसरे दिन बड़े दिनका त्यौहार था । विवाहकी सारी तैयारी किये हुए वर-वधूके विवाहको रजिस्ट्री की तारीखका इस तरह बदला जाना सबको बड़ा नागवार गुजरा। बड़े मजिस्ट्रेटसे मेरा परिचय था । वह इस विभागका अफसर था । मैं इस दंपती को लेकर उनके पास गया । किस्सा सुनकर वह हंसे और चिट्ठी लिख दी । तब जाकर वह विवाह रजिस्टर हुआ ।
आजतक तो थोड़े-बहुत परिचित गोरे पुरुष ही हम लोगोंके साथ रहे थे; पर अब एक अपरिचित अंग्रेज महिला हमारे परिवार में दाखिल हुई । मुझे तो बिलकुल याद नहीं पड़ता कि खुद मेरा कभी उनके साथ कोई झगड़ा हुआ हो; परंतु जहां अनेक जातिके और प्रकृतिके हिंदुस्तानी आया-जाया करते थे और जहां मेरी पत्नी को भी ऐसे जीवनका अनुभव थोड़ा था, वहां उन दोनोंको कभी-कभी उद्वेगके अवसर मिले हों तो आश्चर्य नहीं; परंतु मैं कह सकता हूं कि एक ही जाति और कुटुंबके लोगों में कटु अनुभव जितने होते हैं, उनसे तो अधिक इस विजातीय कुटुंबमें नहीं हुए; बल्कि ऐसे जिन प्रसंगोंका स्मरण मुझे है वे बहुत मामूली कहे जा सकते हैं। बात यह है कि सजातीय-विजातीय यह तो