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अध्याय १८ : एक पुस्तकका चमत्कारी प्रभाव
३०३ सका। उसने तो बस मुझे पकड़ ही लिया। जोहान्सबर्गसे नेटाल २४ घंटेका रास्ता है । ट्रेन शामको डरबन पहुंचती थी। पहुंचनेके बाद रात-भर नींद न आई। इस पुस्तक के विचारोंके अनुसार जीवन बनानेकी धुन लग रही थी।
. इससे पहले मैंने रस्किनकी एक भी पुस्तक नहीं पड़ी थी। विद्यार्थीजीवनमें पाठ्य-पुस्तकोंके अलावा मेरा वाचन नहीं के बराबर समझना चाहिए और कर्म-अमिमें प्रवेश करने के बाद तो ममय ही बहुत कम रहता है। इस कारण आजतक भी मेरा पुस्तक-जाग बहुत ही थोड़ा हूँ। मैं मानता हूं कि इस अनायासके अथवा जबर्दस्तीके संयमसे मुझे कुछ भी नुकसान नहीं पहुंचा है। पर, हां, यह कह सकता हूं कि जो-कुछ थोड़ी पुस्तकें मैंने पढ़ी हैं उन्हें ठीक तौरपर हजम करनेकी कोशिश अलबत्ता मैंने की है। और मेरे जीवन में यदि किसी पुस्तकने तत्काल महत्त्वपूर्ण रचनात्मक परिवर्तन कर डाला हो तो वह यही पुस्तक है। बादको मैंने इसका गजराती में अनुवाद किया था और वह 'सर्वोदय'के नामसे प्रकाशित
मेरा यह विश्वास है कि जो चीज मेरे अंतरतरमें बसी हुई थी उसका स्पष्ट प्रतिबिंव मैन रस्किनके इस ग्रंथ-रत्नम देखा और इस कारण उसने मुझपर अपना साम्राज्य जमा लिया एवं अपने विचारोंके अनुसार मुझसे पाचरण करवाया। हमारी अन्तस्थ सुप्त भावनाओं को जाग्रत करनेका सामर्थ्य जिसमें होता है. वह कवि है । सब कवियों का प्रभाव सदपर एकसा नहीं होता; क्योंकि सब लोगोंमें सभी अच्छी भावनाएं एक मात्रामें नहीं होती।
'सर्वोदय' के सिद्धांतको मैं इस प्रकार समझा-- १-सबके भलेमें अपना भला है ।
२-वकील और नाई दोनोंके कामकी कीमत एकसी होनी चाहिए, क्योंकि आजीविकाका हक दोनोंको एकसा है। - ||३-सादा. मजदुर और किसानका जीवन ही सच्चा जीवन है ।
पहली बात तो मैं जानता था। दूसरीका मुझे आभास हुआ करता था। पर तीसरी तो मेरे विचार-क्षेत्र में आई तक न थी। पहली बातमें पिछली दोनों बातें समाविष्ट हैं, यह बात 'सर्वोदय'से मुझे सूर्य-प्रकाशकी तरह स्पाट दिखाई देने लगी। सुबह होते ही मैं उसके अनुसार अपने जीवनको बनानेकी चिंतामें लगा।