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आत्म-कथा : भाग ४
करनेमें कुछ समय लगना स्वाभाविक था । तबतकके लिए यह पहरेका प्रबंध किया गया था ।
इससे लोगोंमें बड़ी चिंता फैली, परंतु मैं उनके साथ उनका सहायक था -- इससे उन्हें बहुत तस्कीन थी। इनमें कितने ही ऐसे गरीब लोग भी थे, जो अपना रुपया-पैसा घरमें गाड़कर रखते थे । अब उसे खोदकर उन्हें कहीं रखना था । वे न बैंकको जानते थे, न बैंक उन्हें । मैं उनका बैंक बना । मेरे घर रुपयोंका ढेर हो गया । ऐसे समय में मैं भला मेहनताना क्या ले सकता था. ? किसी तरह मुश्किल से इसका प्रबंध कर पाया । हमारे बैंकके मैनेजर के साथ मेरा अच्छा परिचय था । मैंने उन्हें कहलाया कि मुझे बैंक में बहुतेरे रुपये जमा कराने हैं। बैंक आम तौरपर तांबे या चांदी के सिक्के लेनेके लिए तैयार नहीं होते । फिर यह भी अंदेशा था कि प्लेग स्थानोंसे आये सिक्कोंको छूनेमें क्लर्क लोग आनाकानी करें। किंतु मैनेजरने मेरे लिए सब तरहकी सुविधा कर दी । यह बात तय पाई कि रुपये-पैसे जंतुनाशक पानीमें धोकर बैंकमें जमा कराये जाये । इस तरह मुझे याद पड़ता है कि लगभग ६०,००० पौंड बैंकमें जमा हुए थे । मेरे जिन मवक्किलों के पास अधिक रकम थी उन्हें मैंने एक निश्चित अवधिके लिए बैंक जमा कराने की सलाह दी, जिससे उन्हें अधिक ब्याज मिल सके । इससे कितने ही रुपये उन मवक्किलों के नामसे बैंकमें जमा हुए। इसका परिणाम यह हुआ कि कितने ही लोगोंको बैंकोंमें रखनेकी आदत पड़ी ।
जोहान्सबर्ग के पास 'क्लिप्सफ्रुट फार्म' नामक एक स्थान है । लोकेशननिवासियोंको वहां एक स्पेशल ट्रेनसे ले गये । यहां म्यूनिसिपैलिटीने उनके लिए अपने खर्च से घर बैठे पानी पहुंचाया । इस तंबूके गांवका नजारा सैनिकोंके पड़ावकी तरह था । लोग ऐसी स्थितिमें रहनेके आदी नहीं थे, इससे इन्हें मानसिक दुःख तो हुआ । नई जगह अटपटी मालूम हुई, किंतु उन्हें कोई खास कष्ट नहीं उठाना पड़ा । मैं रोज बाइसिकलपर जाकर वहां एक चक्कर लगा प्राता । तीन सप्ताहतक इस तरह खुली हवा में लोगोंकी तंदुरुस्तीपर जरूर अच्छा असर हुआ । और मानसिक दुःख तो प्रथम चौबीस घंटे पूरे होने के पहले ही चला गया था। फिर तो a नंदसे रहने लगे। मैं जहां जाता वहां कहीं भजन-कीर्तन और कहीं खेलकूद आदि होते हुए देखता ।