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अध्याय १२ : अंग्रेजोंसे परिचय ( चालू )
अपनेको राग-द्वेषसे ऊपर उठाए रक्खें ।
इस कारण जब बोअर-ब्रिटिश-युद्ध शुरू हुआ तब यद्यपि मेरा माग घर भरा हुआ था, तथापि मैंने जोहान्सबर्गसे पाये दो अंग्रेजों को अपने यहां रक्खा । दोनों थियॉसफिस्ट थे। उनमें से एकका नाम था किचन. जिनके बारेमें हमें और आगे जानना होगा। इन मित्रोंके सहवासने भी धर्मपत्नीको रुलाकर छोड़ा था। मेरे निमित्त रोनेके अवसर उसकी तकदीरमें बहुतेरे आये हैं। विना किसी परदे या परहेजके इतनं निकट-संबंध अंग्रेजोंको घरमें रखनेका यह पहला अवसर था। हां, इंग्लैंडम अलबत्ता में उनके घरों में रहा था; पर वहां तो मैंने अपनेको उनकी रहन-सहनके अनुकूल बना लिया था और वहांका रहना लगभग वैसा ही था जैसा कि होटल में रहना; पर यहांकी हालत वहांसे उलटी थी। ये मित्र मेरे कुटुंबी बनकर रहे थे । बहुतांश में उन्होंने भारतीय रहन-सहनको अपना लिया था। मेरे घरका बाहरी साज-सामान यद्यपि अंग्रेजी ढंगका था फिर भी भीतरी रहन-सहन और खान-पान अादि प्रधानतः हिंदुस्तानी था। यद्यपि मुझे याद पड़ता है कि उनके रखने से हमें बहुतेरी कठिनाइयां पैदा हुई थीं; फिर भी मैं यह कह सकता हूं कि वे दोनों सज्जन हमारे घरके दूसरे लोगोंके साथ मिल-जुल गये थे। डरबनकी अपेक्षा जोहान्सबर्गके ये संबंध बहुत आगेतक गये थे ।
अंग्रेजोंसे परिचय (चालू)
___ जोहान्सबर्गमें मेरे पास एक बार चार हिंदुस्तानी मुंशी हो गये थे। उन्हें मुंशी कहूं या बेटा कहूं, यह कहना कठिन है; परंतु इतनेसे मेरा काम न चला। टाइपिंगके बिना काम चल ही नहीं सकता था। हममें से सिर्फ मुझको ही टाइपिंगका थोड़ा ज्ञान था। सो इन चार युवकोंमेंसे दोको टाइपिंग सिखाया; परंतु वे अंग्रेजी कम जानते थे। इससे उनका टाइपिंग कभी शुद्ध और अच्छा न हो सका। फिर इन्हींमेंसे मुझे हिसाब लेखक तैयार करना था। इधर नेटालसे मैं अपने मन-माफिक किसीको बुला नहीं सकता था; क्योंकि परवानेके बगैर