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अध्याय १४ : 'कुली लोकेशन' या भंगी-टोला ?
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रक्खं गये और अब भी हैं वहां हिंदुस्तानियोंको कोई हक-मिल्कियत नहीं है; परंतु जोहान्सबर्ग के इस लोकेशनमें जमीनका ९९ सालका पट्टा कर दिया गया था। इसमें हिंदुस्तानियोंकी बड़ी गिचपिच वस्ती थी। आबादी तो बढ़ती जाती थी; किंतु लोकेशन जितनेका उतना ही बना था। उसके पाखाने तो ज्यों-त्यों करके साफ किये जाते थे; परंतु इसके अलावा म्युनिसिपैलिटीकी तरफसे और कोई देखभाल नहीं होती थी। ऐसी दशामें सड़क और रोशनीका तो पता ही कैसे चल सकता था ? इस तरह जहां लोगोंके पाखाने-पेशावकी सफाईके विषयमें ही परवाह नहीं की जाती थी वहां दूसरी सफाईका तो पूछना ही क्या ? फिर जो हिंदुस्तानी वहां रहते थे वे नगर-सुधार, स्वच्छता, आरोग्य इत्यादिके नियमोंके जानकार सुशिक्षित अौर आदर्श भारतीय नहीं थे कि जिन्हें म्युनिसिपैलिटीकी सहायता की' अथवा उनकी रहन-सहनपर देखभाल करनेकी जरूरत न थी। हां, यदि वहां ऐसे भारतवासी जा बसे होते जो जंगल में मंगल कर सकते हैं, जो मिट्टीमेंसे मेवा पैदा कर सकते हैं तब तो उनका इतिहास जुदा ही होता। ऐसे बहु-संख्यक. लोग दुनियामें कहीं भी देश छोड़कर विदेशोंमें मारे-मारे फिरते देखे ही नहीं जाते । आम तौरपर लोग धन और धंधे के लिए विदेशोंमें भटकते हैं; परंतु हिंदुस्तानसे तो वहां अधिकांशमें अपड़, गरीब, दीन-दुखी' मजूर लोग ही गये थे। इन्हें तो कदम-कदमपर रहनुमाई और रक्षणकी आवश्यकता थी। हां, उनके पीछे वहां व्यापारी तथा दूसरी श्रेणियोंके स्वतंत्र भारतवासी भी गये; परंतु वे तो उनके मुकाबिलेमें मुट्ठी-भर थे।
इस तरह स्वच्छता-रक्षक विभागकी अक्षम्य गफलतसे और भारतीय निवासियोंके अज्ञानसे लोकेशनकी स्थिति आरोग्यकी दृष्टिसे अवश्य बहुत खराब थी। उसे सुधारनेकी जरा भी उचित कोशिश सुधार-विभागने नहीं की। इतना ही नहीं, बल्कि अपनी ही इस गलती से उत्पन्न खराबीका बहाना बनाकर उसने इस लोकेशनको मिटा देनेका निश्चय किया और उस जमीनपर कब्जा कर लेनेकी सत्ता वहांकी धारा-सभासे प्राप्त कर ली। जब मैं जोहान्सबर्गमें रहने गया तब वहांकी यह स्थिति हो रही थी।
वहांके निवासी अपनी-अपनी जमीनके मालिक थे। इसलिए उन्हें कुछ हर्जाना देना जरूरी था ! हरजानेकी रकम तय करनेके लिए एक खास