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अध्याय १६ : महामारी --२
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बिलकुल तैयार न था, मेरी हिम्मत ही नहीं होती थी । अतएव उन्होंने ऊपरका सब काम सम्हाला ।
शुश्रूषाकी यह रात भयानक थी । मैं इससे पहले बहुत से रोगियोंकी सेवा-शुश्रूषा कर चुका था । परंतु प्लेगके रोगीकी सेवा करनेका अवसर मुझे कभी न मिला था। डाक्टरोंकी हिम्मतने हमें निडर बना दिया था । रोगियोंकी शुश्रूषाका काम बहुत न था । उन्हें दवा देना, दिलासा देना, पानी-वानी दे देना, उनका मैला वगैरा साफ कर देना --- इसके सिवा अधिक काम न था ।
इन चारों नवयुवकोंके प्राण-पण से किये गये परिश्रम और ऐसे साहस और निडरताको देखकर मेरे हर्षकी सीमा न रही ।
डाक्टर गाडी हिम्मत समझमें आ सकती है, मदनजीतकी भी समझमें आ जाती है -- पर इन युवकोंकी हिम्मतपर आश्चर्य होता है । ज्यों-त्यों करके रात बीती । जहांतक मुझे याद पड़ता है, उस रात तो हमने एक भी बीमारको नहीं खोया ।
परंतु यह प्रसंग जितना ही करुणाजनक है उतना ही मनोरंजक और मेरी दृष्टिमें धार्मिक भी है । इस कारण इसके लिए अभी दो और अध्यायोंकी - वश्यकता होगी ।
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महामारी - २
इस प्रकार एकाएक मकानका ताला तोड़कर बीमारों की सेवा-शुश्रूषा करने के लिए टाउन-क्लर्कने हमारा उपकार माना और सच्चे दिलसे कबूल किया"ऐसी हालतका एकाएक सामना और प्रबंध करनेकी सहूलियत हमारे पास नहीं । आपको जिस किसी प्रकारकी सहायता की आवश्यकता हो, आप अवश्य कहिएगा; टाउन - कौंसिल अपने बस भर जरूर आपकी सहायता करेगी ।" परंतु वहांकी म्यूनिसिपैलिटीने उचित प्रबंध करनेमें अपनी तरफसे विलंब न होने दिया ।
दूसरे दिन एक खाली गोदाम हमारे हवाले किया गया और कहा गया कि