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________________ अध्याय १६ : महामारी --२ २९५ बिलकुल तैयार न था, मेरी हिम्मत ही नहीं होती थी । अतएव उन्होंने ऊपरका सब काम सम्हाला । शुश्रूषाकी यह रात भयानक थी । मैं इससे पहले बहुत से रोगियोंकी सेवा-शुश्रूषा कर चुका था । परंतु प्लेगके रोगीकी सेवा करनेका अवसर मुझे कभी न मिला था। डाक्टरोंकी हिम्मतने हमें निडर बना दिया था । रोगियोंकी शुश्रूषाका काम बहुत न था । उन्हें दवा देना, दिलासा देना, पानी-वानी दे देना, उनका मैला वगैरा साफ कर देना --- इसके सिवा अधिक काम न था । इन चारों नवयुवकोंके प्राण-पण से किये गये परिश्रम और ऐसे साहस और निडरताको देखकर मेरे हर्षकी सीमा न रही । डाक्टर गाडी हिम्मत समझमें आ सकती है, मदनजीतकी भी समझमें आ जाती है -- पर इन युवकोंकी हिम्मतपर आश्चर्य होता है । ज्यों-त्यों करके रात बीती । जहांतक मुझे याद पड़ता है, उस रात तो हमने एक भी बीमारको नहीं खोया । परंतु यह प्रसंग जितना ही करुणाजनक है उतना ही मनोरंजक और मेरी दृष्टिमें धार्मिक भी है । इस कारण इसके लिए अभी दो और अध्यायोंकी - वश्यकता होगी । १६ महामारी - २ इस प्रकार एकाएक मकानका ताला तोड़कर बीमारों की सेवा-शुश्रूषा करने के लिए टाउन-क्लर्कने हमारा उपकार माना और सच्चे दिलसे कबूल किया"ऐसी हालतका एकाएक सामना और प्रबंध करनेकी सहूलियत हमारे पास नहीं । आपको जिस किसी प्रकारकी सहायता की आवश्यकता हो, आप अवश्य कहिएगा; टाउन - कौंसिल अपने बस भर जरूर आपकी सहायता करेगी ।" परंतु वहांकी म्यूनिसिपैलिटीने उचित प्रबंध करनेमें अपनी तरफसे विलंब न होने दिया । दूसरे दिन एक खाली गोदाम हमारे हवाले किया गया और कहा गया कि
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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