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अध्याय १३ : 'इंडियन ओपीनियन'
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पत्र समझते थे और इसमें उन्हें सत्याग्रह-संग्रामका तथा दक्षिण अफ्रीका-स्थित हिंदुस्तानियोंकी दशाका सच्चा चित्र दिखाई पड़ता था ।
इस पत्रके द्वारा मुझे रंग-बिरंगे मनुष्य-स्वभावको परखने का बहुत अवसर मिला। इसके द्वारा मैं संपादक और ग्राहकके बीच निकट और स्वच्छ संबंध बांधना चाहता था। इसलिए मेरे पास ढेर-की-ढेर चिट्ठियां ऐसी आती जिनमें लेखक अपने अंतरको मेरे सामने खोलते थे। इस सिलसिले में तीखे, कडुए, मीठे तरहतरहके पत्र और लेख मेरे पास आते। उन्हें पड़ना, उनपर विचार करना, उनके विचारोंका सार निकालकर उन्हें जवाब देना, यह मेरे लिए बड़ा शिक्षादायक काम हो गया था। इसके द्वारा मुझे ऐसा अनुभव होता था मानो मैं वहांकी बातों
और विचारोंको अपने कानोंसे सुनता हूं। इससे मैं संपादककी जिम्मेदारीको खूब समझने लगा और अपने समाजके लोगोंपर जो नियंत्रण मेरा हो सका उसके बदौलत भाबी संग्राम शक्य, सुशोभित और प्रबल हुअा ।
___ 'इंडियन ओपीनियन के प्रथम मासके कार्य-कालमें ही मुझे यह अनुभव हो गया था कि समाचार-पत्रोंका संचालन सेवा-भावसे ही होना चाहिए। समाचार-पत्र एक भारी शक्ति है ; परंतु जिस प्रकार निरंकुश जल-प्रवाह कई गांवोंको डुबो देता और फसलको नष्ट-भ्रष्ट कर देता है उसी प्रकार निरंकुश कलमकी धारा भी सत्यानाश कर देती है। यह अंकुश यदि बाहरी हो तो वह इस निरंकुशतासे भी अधिक जहरीला साबित होता है । अतः लाभदायक तो अंदरका ही अंकुश हो सकता है।
यदि इस विचार-तरणिमें कोई दोष न हो तो, भला बताइए, संसारके कितने अखबार कायम रह सकते हैं ? परंतु सवाल यह है कि ऐसे फिजूल अखबारोंको बंद भी कौन कर सकता है ? और कौन किसको फिजूल बता सकता है ? सच वात यह है कि कामकी और फिजूल दो बातें संसारमें एक साथ चलती रहेंगी। मनुष्यके बसमें तो सिर्फ इतना ही है कि वह अपने लिए पसंदगी कर लिया करे।