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आत्म-कथा : भाग ४
अनुभव किया कि उनके द्वारा भारतीयोंकी सेवा नहीं हो रही थी । इन विभागों को कायम रखने में मुझे झूठका ग्राश्रय लेनेका ग्राभास हुआ-- इस कारण उन्हें बंद करके शांति प्राप्त की ।
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मुझे यह खयाल न था कि इस अखबार में मुझे रुपया भी लगाना पड़ेगा; परंतु थोड़े ही अरसेके बाद मैंने देखा कि यदि मैं उसमें रुपया नहीं लगाता हूं तो वह बिलकुल चल ही नहीं सकता था । यद्यपि उसका संपादक मैं न था फिर भी भारतीय और गोरे सब लोग इस बातको जान गये थे कि उसके लेखोंकी जिम्मेदारी मुझपर है । फिर अगर अखवार नहीं निकला होता तो एक बात थी; पर निकल चुकने के बाद उसके बंद होनेसे सारे भारतीय समाजकी बदनामी होती थी और उसे हानि पहुंचने का भी पूरा भय था । इसलिए मैं उसमें रुपये लगाता गया और अंतको यहांतक नौबत आ गई कि मेरे पास जो कुछ बच जाता था सब उसके अर्पण होता था । ऐसा भी समय मुझे याद है जब उसमें प्रति मास ७५ पौंड मुझे भेजना पड़ता था । परंतु इतना अरसा हो जाने के बाद मुझे प्रतीत होता है कि इस अखबार के द्वारा भारतीय समाजकी अच्छी सेवा हुई है । उसके द्वारा धन उपार्जन करनेका तो इरादा ठेटसे ही किसीका न था ।
जबतक उसका सूत्र मेरे हाथमें था तबतक उसमें जो कुछ परिवर्तन हुए वे मेरे जीवन के परिवर्तनोंके सूचक थे । जिस प्रकार आज 'यंग इंडिया' और 'नवजीवन' मेरे जीवनके कितने अंशका निचोड़ हैं उसी प्रकार 'इंडियन ओपीनियन' भी था । उसमें मैं प्रति सप्ताह अपनी आत्माको उंडेलता और उस चीजको समझाने का प्रयत्न करता जिसे मैं सत्याग्रहके नाम से पहचानता था । जेलके दिनोंको छोड़कर दस वर्षतक अर्थात् १९१४तकके 'इंडियन प्रोपीनियन' का शायद ही कोई अंक ऐसा गया हो जिसमें मैंने एक भी शब्द बिना विचारे, बिना तौले लिखा हो अथवा महज किसीको खुश करने के लिए लिखा हो या जान-बूझकर अत्युक्ति की हो | यह अखबार मेरे लिए संयमकी तालीमका काम देता था, मित्रोंके लिए मेरे विचार जाननेका साधन हो गया था और टीकाकारोंको उसमेंसे टीका करने की सामग्री बहुत थोड़ी मिल सकती थी। मैं जानता हूं कि उसके लेखोंकी बदौलत टीकाकारोंको अपनी कलमपर अंकुश रखना पड़ता था । यदि यह अखबार न होता तो सत्याग्रह-संग्राम न चल सकता । पाठक इसे अपना