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आत्म-कथा : भाग ४
कोई हिंदुस्तानी वहां था नहीं सकता था और अपनी सुविधाके लिए मैं राजकर्मचारियोंसे कृपा - भिक्षा मांगने को तैयार न था ।
इससे मैं सोच में पड़ गया। काम इतना बढ़ गया कि पूरी-पूरी मेहनत करनेपर भी इधर वकालतका और उधर सार्वजनिक कामका भार सम्हाल नहीं
पाता था ।
अंग्रेज कारकुन -- फिर वह स्त्री हो या पुरुष -- मिल जानेसे भी मेरा काम चल सकता था; पर शंका यह थी कि 'काले' आदमी के पास भला कोई गोरा कैसे नौकरी करेगा ? परंतु मैंने तय किया कि कम-से-कम कोशिश तो कर देखनी चाहिए । टाइप राइटरोंके एजेंटसे मेरा कुछ परिचय था । मैं उससे मिला और कहा कि यदि कोई टाइपिस्ट भाई या बहन ऐसा हो जिसे 'काले' आदमी के यहां काम करने में कोई उज्र न हो तो मेरे लिए तलाश कर दें । दक्षिण अफ्रीका में लघु-लेखन (शोर्टहैंड ) अथवा टाइपिंगका काम करनेवाली अधिकांश में स्त्रियां ही होती हैं । पूर्वोक्त एजेंटने मुझे श्राश्वासन दिया कि मैं एक शोर्टहैंड - टाइपिस्ट आपको खोज दूंगा । मिस डिक नामक एक स्कॉच कुमारी उसके हाथ लगी । वह हाल ही स्काटलैंड से आई थी। जहां भी कहीं प्रामाणिक नौकरी मिल जाय वहां करनेमें उसे कोई आपत्ति न थी । उसे काममें लगनेकी भी जल्दी थी । उस एजेंटने उस कुमारिकाको मेरे पास भेजा । उसे देखते ही मेरी नजर उस पर ठहर गई । मैंने उससे पूछा
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'तुमको एक हिंदुस्तानी के यहां काम करनेमें आपत्ति तो नहीं है ?
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उसने दृढ़ता के साथ उत्तर दिया- “बिलकुल नहीं ।
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क्या वेतन लोगी ? "
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'साढ़े सत्रह पौंड अधिक तो न होंगे ?
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'तुमसे मैं जिस कामकी आशा रखता हूं वह ठीक-ठीक कर दोगी तो इतनी रकम बिलकुल ज्यादा नहीं है । तुम कब कामपर आ सकोगी ?"
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'आप चाहें तो अभी । "
इस बहनको पाकर में बड़ा प्रसन्न हुआ और उसी समय उसे अपने सामने बैठकर चिट्ठियां लिखवाने लगा । इस कुमारीने अकेले मेरे कारकुनका ही नहीं बल्कि सगी लड़की या बहनका भी स्थान. मेरे नजदीक सहज ही प्राप्त