________________
अध्याय १० : एक पुण्यस्मरण और प्रायश्चित्त
२७४
कहा--" तो लो, रखो यह अपना घर ! मैं चली !"
उस समय में ईश्वरको भूल गया था। दयाका लेशमात्र मेरे हृदय में न रह गया था। मैंने उसका हाथ पकड़ा। सीढ़ी के सामने ही बाहर जानेका दरवाजा था। मैं उस दीन अवलाका हाथ पकड़कर दरवाजेतक खींचकर ले गया। दरवाजा अाधा खोला होगा कि अांखोंमें गंगा-जमुना बहाती हुई कस्तूरबाई बोली
"तुम्हें तो कुछ गरम है नहीं; पर मुझे है। जरा तो लजायो। मैं बाहर निकलकर आखिर जाऊं कहां? मां-बाप भी यहां नहीं कि उनके पास चली जाऊं। मैं ठहरी स्त्री-जाति । इसलिए मुझे तुम्हारी धौंस सहनी ही पड़ेगी। अब जरा शरम करो और दरवाजा बंद कर लो---कोई देख लेगा तो दोनोंकी फजीहत होगी।"
मैंने अपना चेहरा तो सुर्ख बनाये रक्खा; पर मनमें शरमा जरूर गया । दरवाजा बंद कर दिया। जबकि पत्नी मुझे छोड़ नहीं सकती थी तब मैं भी उसे छोड़कर कहां जा सकता था? इस तरह हमारे आपस में लड़ाई-झगड़े कई बार हुए हैं; परंतु उनका परिणाम सदा अच्छा ही निकला है। उनमें पत्नीने अपनी अद्भुत सहनशीलता के द्वारा मुझपर विजय प्राप्त की है ।
ये घटनाएं हमारे पूर्व-युगकी हैं, इसलिए उनका वर्णन मैं आज अलिप्तभावसे करता हूं। आज मैं तबकी तरह मोहांध पति नहीं हूं, न उसका शिक्षक ही हूं। यदि चाहें तो कस्तूरवाई आज मुझे धमका सकती हैं । हम आज एकदूसरेके भुक्त-भोगी मित्र हैं, एक-दूसरेके प्रति निर्विकार रहकर जीवन बिता रहे हैं। कस्तूरवाई आज ऐसी सेविका बन गई हैं, जो मेरी बीमारियों में बिना प्रतिफलकी इच्छा किये सेवा-शुश्रूषा करती हैं ।
यह घटना १८९८की है। उस समय मुझे ब्रह्मचर्य-पालनके विषय में कुछ ज्ञान न था। वह समय ऐसा था जबकि मुझे इस बात का स्पष्ट ज्ञान न था कि पत्नी तो केवल समिणी, सहचारिणी और सुख-दुःखको साथिन है । मैं यह समझकर बरताव करता था कि पत्नी विषय-भोगकी भाजन है, उसका जन्म पतिकी हर तरहकी आज्ञाओंका पालन करनेके लिए हुआ है।
किंतु १९०० ई०से मेरे इन विचारों में गहरा परिवर्तन हुआ। १९०६में उत्तका परिणाम प्रकट हुआ। परंतु इसका वर्णन आगे प्रसंग मानेपर होगा।