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अध्याय १० : एक पुण्यस्मरण और प्रायश्चित्त
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थे। ऐसा बर्ताव करना मेरा स्वभाव ही बन गया है, इसका ज्ञान मुझे उस समय न था। ऐसा बर्ताव सत्याग्रहकी जड़ है, यह अहिंसाका ही एक अंग-विशेष है, यह तो मै बादको समझ पाया हूं।
मनुष्य और उसका काम ये दो जुदा चीजें हैं। अच्छे कामके प्रति मनमें अादर और बुरेके प्रति तिरस्कार अवश्य ही होना चाहिए; पर अच्छे-बुरे काम करने वाले के प्रति हमेशा मनमें अादर अथवा दयाका भाव होना चाहिए। यह बात समझने में तो बड़ी सरल है; लेकिन उसके अनुसार माचरण बहुत ही कम होता है। इसीसे जगत्में हम इतना जहर फैला हुआ देखते हैं ।
सत्यकी खोजके मूल में ऐसी अहिंसा व्याप्त है । यह मैं प्रतिक्षण अनुभव करता हूं कि जबतक यह अहिंसा हाथ न लगेगी तबतक सत्य हाथ नहीं आ सकता। किसी तंत्र या प्रणालीका विरोध तो अच्छा है; लेकिन उसके संचालकका विरोध करना मानो खुद अपना ही विरोध करना है। कारण यह है कि हम सबकी सृष्टि एक ही कूचीके द्वारा हुई है। हम सब एक ही ब्रह्मदेवकी प्रजा है। संचालक अर्थात् उस व्यक्तिके अंदर तो अनंत शक्ति भरी हुई है; इसलिए यदि हम उसका अनादर--तिरस्कार करेंगे तो उसकी शक्तियोंका, गुणोंका भी अनादर होगा। ऐसा करने से तो उस संचालकको एवं प्रकारांतरसे सारे जगत्को हानि पहुंचेगी ।
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एक पुण्यस्मरण और प्रायश्चित्त मेरे जीवनमें ऐसी अनेक घटनाएं होती रही हैं, जिनके कारण मैं विविध धर्मियों तथा जातियोंके निकट परिचयमें आ सका हूं। इन सब अनुभवोंपरसे यह कह सकते हैं कि मैंने घरके या बाहरके, देशी' या विदेशी, हिंदू या मुसलमान तथा ईसाई, पारसी या यहूदियोंसे भेद-भावका खयाल तक नहीं किया। मैं कह सकता हूं कि मेरा हृदय इस प्रकारके भेद-भावको जानता ही नहीं। इसको मैं अपना एक गुण नहीं मानता हूं; क्योंकि जिस प्रकार अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रहादि