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अध्याय : जबरदस्त से मुकाबला
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जबरदस्त से मुकाबला
अब एशियाई कर्मचारियोंकी ओर निगाह डालें । इन कर्मचारियोंका सबसे बड़ा थाना जोहान्सबर्ग में था । मैं देखता था कि इन थानोंमें हिंदुस्तानी, . चीनी आदि लोगोंका रक्षण नहीं, बल्कि भक्षण होता था । मेरे पास रोज शिकायतें श्राती —— “जिन लोगोंको मानेका अधिकार है वे तो दाखिल नहीं हो सकते और जिन्हें अधिकार नहीं है वे सौ-सौ पौंड देकर आते रहते हैं । इसका इलाज यदि आप न करेंगे तो कौन करेगा ?” मेरा भी मन भीतरसे यही कहता था । वह बुराई यदि दूर न हुई तो मेरा ट्रांसवालमें रहना बेकार समझना चाहिए ।
मैं इसके सबूत इकट्ठे करने लगा। जब मेरे पास काफी सबूत जमा हो गए तब मैं पुलिस कमिश्नर के पास पहुंचा । मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि उसमें दया और न्यायका भाव है। मेरी बातोंको एकदम उड़ा देनेके वजाय उसने मन लगाकर सुनीं और कहा कि इनका सबूत पेश कीजिए। मैंने जो गवाह पेश किये उनके बयान उसने खुद लिये । उसे मेरी बात का इतमीनान हो गया; परंतु जैसा कि मैं जानता था वैसे ही वह भी जानता था कि दक्षिण अफ्रीका में गोरे पंचोंके द्वारा गोरे अपराधियोंको दंड दिलाना मुश्किल था पर उसने कहा-
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' लेकिन फिर भी हमें अपनी तरफसे तो कोशिश करनी चाहिए । इस भय से कि ये अपराधी ज्यूरीके हाथों छूट जायंगे, उन्हें गिरफ्तार न कराना भी ठीक नहीं। मैं तो उन्हें जरूर पकड़वा लूंगा ।
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मुझे तो विश्वास था ही। दूसरे अफसरोंके ऊपर भी मुझे शक तो था; लेकिन मेरे पास उनके खिलाफ कोई सबल प्रमाण नहीं था । दोके विषयमें तो मुझे लेशमात्र संदेह न था । इसलिए उन दोनोंके नाम वारंट जारी हुए ।
मेरा काम तो ऐसा ही था, जो छिपा नहीं रह सकता था । बहुत-से लोग यह देखते थे कि मैं प्रायः रोज पुलिस कमिश्नर के पास जाता हूं । इन दो कर्मचारियोंके छोटे-बड़े कुछ जासूस लगे ही रहते थे । वे मेरे दफ्तरके आसपास मंडराया करते और मेरे प्राने जानेके समाचार उन कर्मचारियोंको सुनाते रहते ।