________________
अध्याय ७ : मिट्टी और पानीके प्रयोग
२७१
खो बैठा हूं। प्रयोग करनेका, एक जगह स्थिर होकर बैठनेका मुझे अवसर भी नहीं मिल सका है । फिर भी मिट्टी और पानी के उपचारोंपर मेरा विश्वास बहुतांशमें उतना ही बना हुआ है, जितना कि आरंभ में था । प्राज भी एक सीमाके अंदर रहकर खुद अपने पर मिट्टी के प्रयोग करता हूं और मौका पड़ जानेपर अपने साथियोंको भी उनकी सलाह देता हूं। मैं अपनी जिंदगी में दो बार बहुत सख्त वीमार पड़ चुका हूं। फिर भी मेरी यह दृढ धारणा है कि मनुष्यको दवा लेने की शायद ही आवश्यकता होती है । पथ्य और पानी, मिट्टी इत्यादिके घरेलू उपचारोंसे ही हजार में नौ-सौ निन्यानवे बीमारियां अच्छी हो सकती हैं ।
बार-बार वैद्य, हकीम या डाक्टरके यहां दौड़-दौड़कर जानेसे और शरीर में अनेक चूर्ण और रसायन भरनेसे मनुष्य अपने जीवनको कम कर देता है । इतना ही नहीं, बल्कि अपने मनपरसे अपना अधिकार भी खो बैठता है । इससे वह अपने मनुष्यत्वको भी गंवा देता है और शरीरका स्वामी रहने के बजाय उसका गुलाम बन जाता है ।
यह अध्याय में रोग-शय्यापर पड़ा हुआ लिख रहा हूं | इससे कोई इन विचारोंकी अवहेलना न करें। अपनी बीमारियोंके कारणोंका मुझे पता है । मैं अपनी ही खराबियोंके कारण बीमार पड़ा हूं, इस बातका ज्ञान और भान मुझे है और मैं इसी कारण अपना धीरज नहीं छोड़ बैठा हूं । इस बीमारीको मैंने ईश्वरका अनुग्रह माना है और दवा-दारू करनेके लालचोंसे दूर रहा हूं । मैं यह भी जानता हूं कि मैं अपनी इस हठधर्मके कारण अपने डाक्टर मित्रोंका जी उकता देता हूं; पर वे उदार भाव से मेरी हठको सहन कर लेते हैं और मुझे छोड़ नहीं देते
पर मुझे अपनी वर्तमान स्थितिका लंबा-चौड़ा वर्णन करनेकी यहां ग्राश्यकता नहीं | इसलिए अब हम फिर १९०४-५ में था जावें ।
परंतु इस विषय में आगे बढ़नेसे पहले पाठकको एक चेतावनी देना जरूरी है । इसको पढ़कर जो लोग जुस्टकी पुस्तक लें, वे उसकी सब बातोंको वेदवाक्य न समझ लें । सभी लेखों और पुस्तकोंमें लेखककी दृष्टि प्रायः एकांगी रहती है । मेरे खयालमें हरएक चीज कम-से-कम सात दृष्टिविदुयोंसे देखी जा सकती है और उन उन दृष्टिबिंदुओं के अनुसार वह बात सच भी होती है;