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आत्म-कथा : भाग ४
परंतु यह याद रखना चाहिए कि सभी दृष्टिबिंदु एक ही समय और एक ही मुकामपर सही नहीं होते । फिर कितनी ही पुस्तकोंमें विक्रीके और नामके लालचकी बुराई भी रहती है । इसलिए जो सज्जन इस पुस्तकको पढ़ना चाहें वे इसे विवेकपूर्वक पढ़ें और यदि कोई प्रयोग करना चाहें तो किसी अनुभवीकी सलाहसे करें, या धीरज रखकर विशेष अभ्यास करनेके बाद प्रयोगकी शुरुआत करें ।
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एक चेतावनी
अपनी इस कथा धारा प्रवाहको फिलहाल एक अध्यायतक रोककर पहले इसी विषयपर कुछ धौर रोशनी डालनेकी आवश्यकता है ।
पिछले अध्यायमें मिट्टीके प्रयोगों के संबंध में मैंने जो कुछ लिखा है उसी तरह भोजनके भी प्रयोग मैंने किये हैं । इसलिए उनके संबंध में भी यहां कुछ लिख डालना उचित है । इस विषयकी और जो कुछ बातें हैं वे प्रसंग-प्रसंगपर सामने श्राती जायेंगी ।
भोजन-संबंधी मेरे प्रयोगों और विचारोंका सविस्तार वर्णन यहां नहीं किया जा सकता; क्योंकि इस विषयपर मैंने अपनी 'आरोग्य संबंधी सामान्यज्ञान' नामक पुस्तक में विस्तार - पूर्वक लिखा है । यह पुस्तक मैंने 'इंडियन प्रोपीनियन' के लिए लिखी थी । मेरी छोटी-छोटी पुस्तिकाओं में यह पुस्तक पश्चिममें तथा यहां भी सबसे अधिक प्रसिद्ध हुई है । इसका कारण मैं आजतक नहीं समझ सका हूँ। यह पुस्तक महज 'इंडियन ओपीनियन' के पाठकोंके लिए ही लिखी गई थी; परंतु उसे पढ़कर बहुतेरे भाईबहनोंने अपने जीवनमें परिवर्तन किया है और मेरे साथ चिट्ठी-पत्री भी की है, और कर रहे हैं। इसलिए उसके संबंध में यहां कुछ लिखनेकी आवश्यकता पैदा हो गई है ।
इसका कारण यह है कि यद्यपि उसमें लिखे अपने विचारोंको बदलनेकी आवश्यकता मुझे अभीतक नहीं दिखाई पड़ी है, फिर भी अपने प्रचारमें मैंने बहुत कुछ परिवर्तन कर लिया है, जिसे इस पुस्तकके बहुतेरे पढ़ने वाले नहीं जानते और यह आवश्यक है कि वे जल्दी जान लें ।