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आत्म-कथा : भाग ४
दलील यह थी कि अंग्रेज लोग बहुत बार खाते हैं और बहुतेरा खा जाते हैं, रातके बारह-बारह बजेतक खाया करते हैं और फिर डाक्टरोंका घर खोजते फिरते हैं। इस बखेड़ेसे यदि कोई अपना पिंड छुड़ाना चाहें तो उन्हें ब्रेक-फास्ट अर्थात् सुबहका नाश्ता छोड़ देना चाहिए । यह बात मुझपर सर्वांशमें तो नहीं पर कुछ अंशमें जरूर घटित होती थी। मैं तीन बार पेट भरकर खाता और दोपहरको चाय भी पीता। मैं कभी अल्पाहारी न था। निरामिषाहारी होते हुए भी और बिना मसालेका खाना खाते हुए भी मैं जितनी हो सके चीजोंको स्वादिष्ट बनाकर खाता था। छः-सात बजेके पहले शायद ही कभी उठता । इससे मैंने यह नतीजा निकाला कि यदि में भी सुबहका खाना छोड़ दू तो जरूर मेरे सिरका दर्द जाता रहे । मैंने ऐसा ही किया भी। कुछ दिन जरा मुश्किल तो मालूम पड़ा; पर साथ ही सिरका दर्द बिलकुल चला गया। इससे मुझे निश्चय हो गया कि मेरी खुराक जरूर आवश्यकतासे अधिक थी।
परंतु कब्जकी शिकायत तो इस परिवर्तनसे भी दूर नहीं हुई । कुनके कटिस्नानका प्रयोग किया। उससे कुछ फर्क पड़ा; पर जितना चाहिए उतना नहीं। इसी अरसेमें उस जर्मन भोजनालयवालेने या किसी दूसरे मित्रने मेरे हाथमें जुस्ट-लिखित 'रिटर्न टू नेचर' (कुदरतकी ओर लौटो) नामक पुस्तक लाकर दी। उसमें मिट्टीके इलाजका वर्णन था । लेखकने इस बातका भी बहुत समर्थन किया है कि हरे और सूखे फल ही मनुष्यका स्वाभाविक भोजन है। केवल फलाहारका प्रयोग तो मैंने इस समय नहीं किया; पर मिट्टीका इलाज तुरंत शुरू कर दिया। उसका जादूकी तरह मुझपर असर हुआ। उसकी विधि इस प्रकार है-खेतोंकी साफ लाल या काली मिट्टी लाकर उसे आवश्यकतानुसार ठंडे पानीमें भिगो लेना चाहिए। फिर साफ पतले भीगे कपड़े में लपेटकर पेटपर रखकर बांध लेना चाहिए। मैं यह पट्टी रातको सोते समय बांधता और सुबह अथवा रातको जब नींद खुल जाती निकाल डालता। इससे मेरा कब्ज निर्मूल हो गया। उसके बाद मैंने मिट्टीके ये प्रयोग खुद अपनेपर तथा अपने साथियोंपर किए है; किंतु मुझे ऐसा याद पड़ता है कि शायद ही कभी उनसे लाभ न पहुंचा हो।
पर, हां, यहां देशम पानेके बाद ऐसे उपचारोंपरसे मैं आत्म-विश्वास ।