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आत्म-कथा : भाग ४
मित्र-मंडलकी संख्या अच्छी कही जा सकती थी। पहले तो उसका काम छोटे पैमाने पर शुरू हुआ; परंतु बादको उसने बढ़ानेका और बड़ी जगह ले जानेका निश्चय किया । इस काम में उसने मेरी सहायता चाही । उस समय उसके हिसाबaaranी हालतका मुझे कुछ पता न था । मैंने मान लिया कि उसके हिसाब और अटकल में कोई भूल न होगी । मेरे पास रुपये-पैसेकी सुविधा रहती थी। बहुतेरे मवक्किलों के रुपये मेरे पास रहते थे । उनमें से एक सज्जनकी इजाजत लेकर लगभग एक हजार पौंड मैंने उसे दे दिया । यह मवक्किल बड़े उदार हृदयऔर विश्वासशील थे । वह पहले-पहल गिरमिट आये थे । उन्होंने कहा"भाई, आपका दिल चाहे तो पैसे दे दो। मैं कुछ नहीं जानता । मैं तो आप ही को जानता हूं ।” उनका नाम था बदरी । उन्होंने सत्याग्रह में बहुत योग दिया था । जेल भी काटी थी । इतनी सम्मति पाकर ही मैंने उसमें रुपये लगा दिये । दोतीन महीने में ही मैं जान गया कि ये रुपये वापस ग्रानेवाले नहीं हैं; इतनी बड़ी रकम खो देनेका सामर्थ्य मुझमें न था । मैं इस रकमको दूसरे काममें लगा सकता था । वह रकम आखिर उसीमें डूब गई; परंतु मैं इस बात को कैसे गवारा कर सकता था कि उस विश्वासी बदरीका रुपया चला जाय ? वह तो मुझको ही पहचानता था । अपने पाससे मैंने यह रकम भर दी ।
एक मवक्किल मित्रसे मैंने रुपये की बात की । उन्होंने मुझे मीठा उलाहना देकर सचेत किया --
"भाई, (दक्षिण अफ्रीका में मैं 'महात्मा' नहीं बन गया था और न 'बापू' ही बना था, मवक्किल मित्र मुझे 'भाई' से ही संबोधन करते थे । ) आपको ऐसे झगड़ोंमें न पड़ना चाहिए । हम तो ठहरे आपके विश्वासपर चलने वाले । ये रुपये प्रापको वापस नहीं मिलनेके । बदरीको तो ग्राप बचालोगे; पर आपकी रकम बट्टे खाते में समझिए । पर ऐसे सुधारके कामोंमें यदि प्राप मवक्किलोंका रुपया लगाने लगेंगे तो मवक्किल बेचारे पिस जायंगे और आप भिखारी बनकर घर बैठ रहेंगे । इससे आपके सार्वजनिक कामको भी धक्का पहुंचेगा । सद्भाग्य से यह मित्र भी मौजूद हैं। दक्षिण अफ्रीका में तथा दूसरी जगह इनसे अधिक स्वच्छ आदमी मैंने दूसरा नहीं देखा । किसीके प्रति यदि उनके मनमें संदेह उत्पन्न होता और बादको उन्हें मालूम हो जाता कि वह बे
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