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आत्म-कथा : भाग ४
अधिकार नहीं होता। इसी तरह मुमुक्षुको अपना आचरण रखना चाहिए---- यह पाठ मैने गीताजीसे सीखा। अपरिग्रही होनेके लिए सम-भाव रखनेके लिए, हेतुका और हृदयका परिवर्तन नावश्यक है, यह बात मुझे दीपककी तरह स्पष्ट दिखाई देने लगी। यस, तुरंत रेवाशंकर भाईको लिखा कि बीमेकी पालिसी वंद कर दीजिए। कुछ रुपया वापस मिल जाय तो ठीक; नहीं तो खैर । बाल-बच्चों और गृहिणीकी रक्षा वह ईश्वर करेगा जिसने उनको और हमको पैदा किया है। यह आशय मेरे उस पत्रका था। पिताके समान अपने बड़े भाईको लिखा--- "अाजतक मैं जो कुछ बचाता रहा आपके अर्पण करता रहा, अव मेरी प्राशा छोड़ दीजिए। अब जो-कुछ बच रहेगा वह यहींके सार्वजनिक कामोंमें लगेगा।"
_इस बातका औचित्य में भाई साहबको जल्दी न समझा सका। शुरूमें तो उन्होंने बड़े कड़े शब्दोंमें अपने प्रति मेरे धर्मका उपदेश दिया--" पिताजी से बढ़कर अक्ल दिखानेकी तुम्हें जरूरत नहीं। क्या पिताजी अपने कुटुंबका पालनपोषण नहीं करते थे? तुम्हें भी उसी तरह घर-बार सम्हालना चाहिए।" आदि-मैने विनय-पूर्वक उत्तर दिया-- " मैं तो वही काम कर रहा हूं, जो पिताजी करते थे। यदि कुटुंबकी व्याख्या हम जरा व्यापक कर दें तो मेरे इस कार्यका औचित्य तुरंत आपके खयाल में आ जायगा ।"
अब भाई साहबने मेरी आशा छोड़ दी। करीब-करीब अ-बोला ही रक्खा । मुझे इससे दुःख हुआ; परंतु जिस बातको मैंने अपना धर्म मान लिया उसे यदि छोड़ता हूं तो उससे भी अधिक दुःख होता था। अतएव मैंने इस थोड़े दुःखको सहन कर लिया। फिर भी भाई साहबके प्रति मेरी भक्ति उसी तरह निर्मल और प्रचंड रही। मैं जानता था कि भाई साहबके इस दुःखका मूल है उनका प्रेम-भाव । उन्हें रुपये-पैसेकी अपेक्षा मेरे सद्व्यवहारकी अधिक चाह थी।
पर अपने अंतिम दिनोंमें भाई साहब मुझपर पसीज गये थे। जब वह मृत्यु-शव्यापर थे तब उन्होंने मुझे सूचित कराया कि मेरा कार्य ही उचित और धर्म्य था । उनका पत्र बड़ा ही करुणाजनक था । यदि पिता पुत्रसे माफी मांग सकता हो तो उन्होंने उसमें मुझसे माफी मांगी थी। लिखा कि मेरे लड़कोंका तुम अपने ढंगसे लालन-पालन और शिक्षण करना। वह मुझसे मिलने के लिए बड़े अधीर हो गये थे। मुझे तार दिया। मैंने तार द्वारा उत्तर दिया-- 'जरूर आजाइए।'