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आत्म-कथा : भाग ४
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त्याग-भावकी वृद्धि
ट्रांसवालमें लोगोंके हकोंकी रक्षाके लिए किस तरह लड़ना पड़ा और एशियाई महकमे के अधिकारियोंके साथ किस तरह पेश आना पड़ा; इसका अधिक वर्णन करनेके पहले मेरे जीवनके दूसरे पहलूपर नजर डाल लेनेकी श्रावश्यकता है । अबतक कुछ-न-कुछ धन इकट्ठा कर लेनेकी इच्छा मनमें रहा करती थी । मेरे परमार्थके साथ यह स्वार्थका मिश्रण भी रहता था ।
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बंबईम जब मैंने अपना दफ्तर खोला था तब एक अमरीकन बीमा एजेंट मुझसे मिलने आया था । उसका चेहरा खुशनुमा था। उसकी बातें बड़ी मीठी थीं । उसने मुझसे मेरे भावी कल्याणकी बातें इस तरह कीं, मानो वह मेरा कोई बहुत दिनोंका मित्र हो । 'अमरीकामें तो आपकी हैसियतके सब लोग अपनी जिंदगीका बीमा करवाते हैं । आपको भी उनकी तरह अपने भविष्यके लिए निश्चित हो जाना चाहिए | जिंदगीका आखिर क्या भरोसा ? हम अमरीकावासी तो बीमा कराना एक धर्म समझते हैं, तो क्या आपको मैं एक छोटी-सी पालिसी करानेके लिए भी न ललचा सकूं ? "
अबतक क्या हिंदुस्तान में और क्या दक्षिण अफ्रीका में कितने ही एजेंट मेरे पास आये; पर मैंने किसी को दाद न दी थी; क्योंकि मैं समझता था कि बीमा कराना मानो अपनी भीरुताका और ईश्वरके प्रति अविश्वासका परिचय देना था; पर इस बार मैं लालच में या गया । वह एजेंट ज्यों-ज्यों अपना जादू घुमाता जाता, त्यों-त्यों मेरे सामने अपनी पत्नी और पुत्रोंकी तस्वीर खड़ी होने लगी । मनमें यह भाव उठा कि "अरे, तुमने पत्नी के लगभग सब गहने-पत्ते बेच डाले हैं । अब अगर यह शरीर कुछ-का- कुछ हो जाय तो इन पत्नी और बाल-बच्चोंके भरणपोषणका भार आखिर तो उसी गरीब भाईपर न जा पड़ेगा जो आज तुम्हारे पिता स्थानकी पूर्ति कर रहा है, और खूबी के साथ कर रहा है ? क्या यह उचित होगा ?" इस तरह मैंने अपने मनको समझा कर १०,००० ) का बीमा करा लिया ।