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अध्याय ४ : त्याग-भावको वृद्धि
२६३ पर दक्षिण अफ्रीका में मेरे मनकी यह हालत न रह गई थी और मेरे विचार भी बदल गये थे। दक्षिण अफ्रीकाकी नई आपत्तिके समय मैंने जोकुछ किया ईश्वरको साक्षी रखकर ही किया था। मुझे इस बातकी कुछ खबर न थी कि दक्षिण अफ्रीका में मुझे कितने समय रहना पड़ेगा। मेरी तो यह धारणा हो गई थी कि अब मैं हिंदुस्तानको वापस न लौट पाऊंगा। इसलिए मुझे बालबच्चोंको अपने साथ ही रखना चाहिए। उनको अब अपनेसे दूर रखना उचित नहीं। उनके भरण-पोपणका प्रबंध भी दक्षिण अफ्रीकामें ही होना चाहिए । यह विचार मनमें आते ही वह पालिसी उलटे मेरे दुःखका कारण बन गई। मुझे मनमें इस बातपर शर्म आने लगी कि मैं उस एजेंटके चक्करमें कैसे आ गया। मैने इस विचारको अपने मन में स्थान ही कैसे दिया कि जो भाई मेरे लिए पिताके बराबर है उन्हें अपने सगे छोटे भाईकी विधवाका बोझ नागवार होगा ? और यह भी कैसे मान लिया कि पहले तुम ही मर जानोगे ? आखिर सबका पालन करनेवाला तो वह ईश्वर ही है ; न तो तुम हो, न तुम्हारे भाई हैं। बीमा करवाके तुमने अपने बाल-बच्चोंको भी पराधीन बना दिया । वे क्यों स्वावलंबी नहीं हो सकते ? इन असंख्य गरीबोंके बाल-बच्चोंका आखिर क्या होता है ? तुम अपनेको उन्हींके-जैसा क्यों नहीं समझ लेते ?”
__ इस प्रकार मनमें विचारोंकी धारा बहने लगी; पर उसके अनुसार व्यवहार सहसा ही नहीं कर डाला। मुझे ऐसा याद पड़ता है कि बीमेकी एक किस्त तो मैंने दक्षिण अफ्रीकासे भी जमा कराई थी।
परंतु इस विचार-धाराको बाहरी उत्तेजन मिलता गया । दक्षिण अफ्रीकाकी पहली यात्राके समय में ईसाइयोंके वातावरणमें कुछ पा चुका था और उसके फल-स्वरूप धर्मके विषय में जाग्रत रहने लगा। इस बार थियांसफीके वातावरणमें
आया। मि० रीच थियॉसफिस्ट थे। उन्होंने जोहान्सबर्गकी सोसाइटीसे मे। संबंध करा दिया। मेरा थियॉसफीके सिद्धांतोंसे मत-भेद था, इसलिए मैं उसका सदस्य तो नहीं बना; पर फिर भी लगभग प्रत्येक थियॉसफिस्टसे मेरा गाढ़ा परिचय हो गया था। उनके साथ रोज धर्म-चर्चा हुआ करती। थियॉसफीकी पुस्तके पढ़ी जातीं और उनके मंडल में कभी-कभी मुझे बोलना भी पड़ता। थियॉसफीमें भ्रातृ-भाव पैदा करना और बढ़ाना मुख्य बात है । इस विषयपर हम बहुत चर्चा