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अध्याय २१ : बंबई में स्थिर हुआ
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ग्लेग जोरोंसे फैल रहा था। जहांतक मुझे याद है, रोज पचास मृत्युएं होती थीं । बांकी बस्ती साढ़े पांच हजारके लगभग थी । करीव करीव सारा गांव खाली हो गया था । मेरे ठहरनेका स्थान वहांकी निर्जन धर्मशालामें था। गांव से वह धर्मशाला कुछ दूरी पर थी; पर मवक्किलोंका क्या हाल ? यदि वे गरीब हों तो उनकी मालिक बस ईश्वर ही समझिए !
मुझे वकील मित्रोंने तार दिया कि में साहवसे प्रार्थना करूं कि प्लेग के कारण अदालतका स्थान बदल दें । प्रार्थना करनेपर साहवने पूछा -- " क्या तुम्हें प्लेग से डर लगता है ?
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मैंने कहा--" यह मेरे डरनेका प्रश्न नहीं है । मैं अपनी हिफाजत करना जानता हूं; पर मवक्किलका क्या होगा ?
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साहब बोले--" प्लेगने तो हिंदुस्तानमें घर कर लिया है, उससे क्या डरना ! वेरावल की हवा कितनी सुंदर है ! ( साहब गांव से दूर दरिया - किनारे महलके समान एक तंबू में रहते थे ) लोगों को इस प्रकार बाहर रहना सीखना चाहिए ।
इस फिलासफी के सामने मेरी क्या चलने लगी ? साहबने सरिश्तेदारसे कहा--"मि० गांधी का कहना ध्यान में रखना । यदि वकील- मवक्किलों को ज्यादा तकलीफ मालूम दे, तो मुझे बताना ।
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इसमें साहबने तो सचाई से अपनी मतिके माफिक उचित ही किया; पर उसे कंगाल हिंदुस्तानकी प्रसुविधाओं का अंदाज कैसे हो ? वह बेचारा हिंदुस्तान की आवश्यकता, आदतों, कुटेवों और रिवाजोंको क्या समझे ? पंद्रह रुपयेकी, मुहरकी गिनती करनेवाला पाईकी गिनती कैसे झट लगा सकता है ? अच्छेसे अच्छा हेतु होनेपर भी जैसे हाथी चींटी के लिए विचार करने में असमर्थ होता है। उसी प्रकार हाथी के समान जरूरतवाला अंग्रेज भी चींटियोंके समान जरूरतवाले हिंदुस्तानी के लिए विचार करने और नियम निर्माण करने में असमर्थ ही होगा । ब खास विषयपर याता हूं। इस प्रकार सफलता मिलनेपर भी मैं थोड़े समय राजकोट में ही रहनेका विचार कर रहा था। इतने में एक दिन केवलराम मेरे पास आये और बोले -- " अव तुमको यहां न रहने देंगे। तुम्हें तो बंबई में ही रहना पड़ेगा ।