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आत्म-कथा : भाग ३
तंत्रका संचालन था ।
मेरी भी यही इच्छा थी; पर यहां काम मिल जानेके विषयमें मुझे आत्मविश्वास न था। पहले अनुभवकी याद भूला न था और खुशामद करना तो मेरे लिए मानो जहर था ।
इसलिए पहले तो मैं राजकोट ही रहा। वहां मेरे पुराने हितैषी और मुझे विलायत भेजनेवाले केवलराम मावजी दबे थे। उन्होंने मुझे तीन मुकदमे दिये । दो अपीले काठियावाड़के जुडीशियल असिस्टेंटके इजलास में थीं और एक खास मुकदमा जामनगरमें था। यह मामला महत्त्वका था। इस मामलेकी जिम्मेदारी लेने में मैंने आनाकानी की, तब केवलराम वोल उठे--" हारेंगे तो हम हारेंगे न ? तुमसे जितना हो सके करना; और मैं भी तुम्हारे साथ ही रहूंगा ।"
इस मामले में प्रतिपक्षीकी तरफ स्व० समर्थ थे। मेरी तैयारी भी ठीक थी। वहांके कानूनकी तो मुझे ठीक जानकारी न थी; पर इस संबंधमें मुझे केवलराम दबेने पूरा तैयार कर दिया था। दक्षिण अफ्रीका जानेसे पहले मित्र लोग मुझे कहा करते थे--" एविडेंस-एक्ट ( कानून गवाह ) फिरोजशाहकी जबानपर रक्खा है, और यही उनकी सफलताकी चाबी है।" यह मैंने ध्यानमें रक्खा,
और दक्षिण अफ्रोका जाते समय मैंने भारतके इस कानूनको टीका-सहित पढ़ लिया था। इसके अतिरिक्त दक्षिण अफ्रीकाका अनुभव तो था ही ।
मुकदमेमें मेरी जीत हुई। इससे मुझे कुछ विश्वास हुआ। पहली दो अपीलोंके विषयमें तो मुझे पहलेसे ही भय न था। मनमें सोचा कि अब बंबई जाने में भी कोई हर्ज नहीं है ।
इस विषयपर अधिक लिखनेसे पहले जरा अंग्रेज अधिकारियोंके अविचार और अज्ञानका अनुभव भी कह डालूं । जुडीशियल असिस्टेंट कहीं एक जगह नहीं बैठते थे। उसकी सवारी धूमती रहती थी; और जहां यह साहब जाते, वहीं वकील और मवक्किलोंको भी जाना ही पड़ता। और वकीलकी फीस जितनी उसके रहनेकी जगहपर हो, बाहर उससे अधिक होती थी। इसलिए मवक्किलको सहज ही दुगना खर्च पड़ता; पर इसका विचार करनेकी जजको क्या जरूरत ?
इस अपीलकी सुनवाई वेरावल में होनेवाली थी। वेरावलमें उस वक्त