________________
अध्याय २१ : बंबईमें स्थिर हुआ
२४५ और कहा-- “अच्छा रख दे; मैं तेरे-जैसा नहीं होना चाहता। मैं न लूं तो तेरा बुरा होगा।"
मैंने चुपचाप पाई दे दी और एक लंबी सांस लेकर चलता बना। इसके बाद भी दो-एक बार काशी-विश्वनाथ गया; पर वह तो तब, जब 'महात्मा' बन चुका था। इसलिए १९०२के अनुभव भला कैसे मिलते ? खुद मेरे ही दर्शन करनेवाले मुझे दर्शन कहांसे करने देते ? 'महात्मा'के दुःख तो मुझ-जैसे 'महात्मा' ही जान सकते हैं; किन्तु गंदगी और होहल्ला तो जैसे-के-तैसे ही वहां देखे ।
परमात्माकी दया पर जिसे शंका हो, वह ऐसे तीर्थ-क्षेत्रोंको देखे। वह महायोगी अपने नामपर होनेवाले कितने ढोंग, अधर्म और पाखंड इत्यादिको सहन करते हैं। उन्होंने तो कह रक्खा है:--
ये यथा मां प्रपचंते तांस्तथैव भजाम्यहम् । अर्थात्,-- "जैसी करनी वैसी भरनी।" कर्मको कौन मिथ्या कर सकता है ? फिर भगवान्को बीचमें पड़नेकी क्या जरूरत है ? वह तो अपने कानून बतलाकर अलग हो गया ।
यह अनुभव लेकर मैं मिसेज बेसेंटके दर्शन करने गया। वह अभी बीमारीसे उठी थीं। यह में जा बीमारीसे उठी थीं। यह में जानता था। मैंने अपना नाम पहचाया। वह तुरंत मिलने आई। मुझे तो सिर्फ दर्शन ही करने थे। इसलिए मैंने कहा--
"मुझ अापकी नाजुक तबियतका हाल मालूम है, मैं तो सिर्फ आपके दर्शन करने आया हूं। तबियत खराब होते हुए भी आपने मुझे दर्शन दिये, केवल इसीसे मैं संतुष्ट हूं; अधिक कष्ट में आपको नहीं देना चाहता।"
यह कहकर मैंने उनसे विदा ली ।
बंबईमें स्थिर हुया गोखलेकी बड़ी इच्छा थी कि मैं बंबई रह जाऊं, वहीं बैरिस्टरी करूं और उनके साथ सार्वजनिक जीवनमें भाग लूं । उस समय सार्वजनिक जीवनका मतलब था कांग्रेसका काम । उनकी प्रस्थापित संस्थाका खास काम कांग्रेसके