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अध्याय २३ : फिर दक्षिण अफ्रीका
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'मुझे इसमेंसे निकालिए न ! मैं तो मारे आगके मरा जा रहा हूँ ।"
"क्यों, पसीना छूट रहा है क्या ?"
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'अजी, मैं तो पसीनेसे तर हो गया । अब तो मुझे निकालिए ।
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मैंने मणिलालका सिर देखा । उसपर मोतीकी तरह पसीने की बूंदें चमक रही थीं। बुखार कम हो रहा था । मैंने ईश्वरको धन्यवाद दिया ।
“ मणिलाल, घबड़ा मत । अब तेरा बुखार चला जायगा, पर कुछ और सीना आ जाय तो कैसा ?" मैंने उससे कहा ।
उसने कहा--" नहीं बापू ! अब तो मुझे छुड़ाइए । फिर देखा जायगा ।" मुझे धैर्य आा गया था, इसीलिए बातों में कुछ मिनट गुजार दिये । सिरसे पसी की धारा बह चली । मैंने चद्दरको अलग किया और शरीरको पोंछकर सूखा कर दिया। फिर बाप-बेटे दोनों साथ सो गये । दोनों खूब सोये ।
सुबह देखा तो मणिलालका बुखार बहुत कम हो गया है । दूध, पानी तथा फलोंपर चालीस दिनोंतक रखा । मैं निश्चित हो गया था। बुखार हठीला था; पर वह काबू में आ गया था। आज मेरे लड़कों में मणिलाल ही सबसे अधिक स्वस्थ और मजबूत हैं ।
इसका निर्णय कौन कर सकता है कि यह रामजीकी कृपा है या जलचिकित्सा, अल्पाहार अथवा और किसी उपायकी ? भले ही सब अपनी-अपनी श्रद्धा अनुसार करें; पर उस वक्त मेरी तो ईश्वरने ही लाज रक्खी । यही मैंने माना और आज भी मानता हूं ।
२३ फिर दक्षिण अफ्रीका
मणिलाल तो अच्छा हो गया; पर मैंने देखा कि गिरगांववाला मकान रहने लायक न था । उसमें सील थी । प्रकाश भी काफी न था । इसलिए रेवाशंकरभाई से सलाह करके हम दोनोंने बंबईके किसी खुली जगहवाले मुहल्ले में मकान लेनेका निश्चय किया । मैं बांदरा, सांताक्रुज वगैरामें भटका । बांदरामें कसाई खाना था, इसलिए वहां रहनेकी हमारी इच्छा न हुई । घाटकूपर वगैरा