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आत्म-कथा : भाग ४
दिनों में जाकर उसका जवाब मिलता। इधर ट्रांसवाल जानेकी इच्छा रखनेवालोंकी संख्या बहुत थी । फलतः उनके लिए दलालोंका एक दल बन गया । इन दलालों और अधिकारियोंमें बेचारे गरीब हिंदुस्तानियों के हजारों रुपये लुट गये । मुझसे कहा गया कि बिना किसी जरियेके परवाना नहीं मिलता और जरिया होनेपर भी कितनी ही बार तो सौ-सौ पौंड फी आदमी खर्च हो जाता है । ऐसी हालत में भला मेरी दाल कैसे गलती ?
तब मैं अपने पुराने मित्र, डरबन के पुलिस सुपरिटेंडेंट के यहां पहुंचा और उनसे कहा--" आप परवाना देनेवाले अधिकारीसे मेरा परिचय करा दीजिए और मुझे परवाना दिला दीजिए। आप यह तो जानते ही हैं कि मैं ट्रांसवाल में रह चुका हूं।" उन्होंने तुरंत सिरपर टोप रखा और मेरे साथ चलकर परवाना दिल दिया । इस समय ट्रेन छूटने में मुश्किल से एक घंटा था । मैंने अपना सामान वगैरा बांध-बूंधकर पहलेसे ही तैयार रखा था । इस कष्टके लिए मैंने सुपरिंटेंडेंट एलेग्जेंडरको धन्यवाद दिया और प्रिटोरिया जानेके लिए रवाना हो गया ।
इस समयतक वहांकी कठिनाइयोंका अंदाज मुझे ठीक-ठीक हो गया था । प्रिटोरिया पहुंचकर मैंने एक दरख्वास्त तैयार की। मुझे यह याद नहीं पड़ता कि डरबनमें किसी से प्रतिनिधियोंके नाम पूछे गये थे । यहां तो नया ही महकमा काम कर रहा था । इसलिए प्रतिनिधियोंके नाम मेरे आनेके पहले ही पूछ लिये गये थे । इसका आशय यह था कि मुझे इस मामलेसे दूर रक्खा जाय, पर इस बात का पता प्रिटोरिया के हिंदुस्तानियोंको लग गया था ।
यह दुःखदायक किंतु मनोरंजक कहानी अगले प्रकरण में ।