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आत्म-कथा : भाग ३
समाज-मंदिरमें 'काशी-यात्रा' पर एक व्याख्यान सुना था। इससे कुछ निराशाके लिए तो वहींसे तैयार हो गया था; पर प्रत्यक्ष देखनेपर जो निराशा हुई वह तो धारणासे अधिक थी। एक संकड़ी फिसलनी गलीसे होकर जाना पड़ता था। शांतिका कहीं नाम नहीं। मक्खियां चारों ओर भिनभिना रही थीं। यात्रियों और दुकानदारोंका हो-हल्ला असह्य मालूम हुआ ।
जहां मनुष्य ध्यान एवं भगवच्चितनकी आशा रखता हो, वहां उनका नामोनिशान नहीं; ध्यान करना हो तो वह अपने अंतरमें ही कर सकते थे। हां, ऐसी भावुक बहनें मैंने जरूर देखीं, जो ऐसी ध्यान-मग्न थीं कि उन्हें अपने आसपासकी कुछ भी खवर न थी; पर इसका श्रेय मंदिरके संचालकोंको नहीं मिल सकता। संचालकोंका कर्त्तव्य तो यह है कि काशी-विश्वनाथके आस-पास शांत, निर्मल, सुगंधित, स्वच्छ वातावरण--क्या बाह्य और क्या आंतरिक--उत्पन्न करें, और उसे बनाये रक्खें ; पर इसकी जगह मैंने देखा कि वहां गुंडे लोगोंका, नये-सेनये तर्जकी मिठाई और खिलौनोंका बाजार लगा हुआ था ।
मंदिरपर पहुंचते ही मैंने देखा कि दरवाजेके सामने सड़े हुए फूल पड़े थे और उनमें से दुर्गंध निकल रही थी। अंदर बढ़िया संगमरमरी फर्श था। उसपर किमी अंध-श्रद्धालुने रुपये जड़ रखे थे और उनमें मैला-कचरा घुसा रहता था।
मैं ज्ञान-वापीके पास गया। यहां मैंने ईश्वरकी खोज की। पर मुझे . · न मिला। इससे मैं मन-ही-मन घुट रहा था। ज्ञान-वापीके पास भी गंदगी . देखी। भेंट रखनेकी मेरी जरा भी इच्छा न हुई। इसलिए मैंने तो सचमुच ही एक पाई वहां चढ़ाई। इसपर पंडाजी उखड़ पड़े। उन्होंने पाई उठाकर फेंक दी और दो-चार गालियां सुनाकर बोले---"तू इस तरह अपमान करेगा तो नरकमें पड़ेगा!"
मैं चुप रहा। मैंने कहा-- “महाराज, मेरा तो, जो होना होगा वह होगा; पर आपके मुंहसे हलकी बात शोभा नहीं देती। यह पाई लेना हो तो लें, वर्ना इसे भी गंवायेंगे।"
___“जा, तेरी पाई मुझे नहीं चाहिए"-- कहकर उन्होंने और भी भलाबुरा कहा। मैं पाई लेकर चलता हुआ। मैंने सोचा कि महाराजने पाई गंवाई नौर मैने बचा ली। पर महाराज पाई खोनेवाले न थे। उन्होंने मुझे फिर बुलाया