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आत्म-कथा : भाग ३
मैंने संवाद आगे न बढ़ाया। इसके बाद हम मंदिरमें पहुंचे । सामने लहूकी नदी बह रही थी । दर्शन करनेके लिए खड़े रहने की इच्छा न रही । मेरे मनमें बड़ा क्षोभ उत्पन्न हुआ । मैं छटपटाने लगा । इस दृश्यको मैं अबतक नहीं भल सका हूं ।
उसी समय बंगाली मित्रोंकी एक पार्टीमें मुझे निमंत्रण था। वहां मैंने एक सज्जनसे इस घातक पूजा-विधिके संबंध में बातचीत की। उन्होंने कहा -- "वहां बलिदानके समय खूब नौबत बजती है, जिसकी गूंजमें बकरोंको कुछ मालूम नहीं होता । यह मानते हैं कि ऐसी गूंजमें चाहे जिस तरह मारें, उन्हें तकलीफ नहीं होती ।
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मुझे यह बात न जंची। मैंने कहा- -" यदि वे बकरे बोल सकें तो इससे भिन्न बात कहेंगे ।" मेरे मनने कहा -- यह घातक रिवाज बंद होना चाहिए । मुझे बुद्धदेववाली कथा याद आई; परंतु मैंने देखा कि यह काम मेरे सामर्थ्य के बाहर था ।
उस समय इस संबंध में मेरी जो धारणा हुई वह अब भी मौजूद है। मेरे नजदीक बकरे प्राणकी कीमत मनुष्यके प्राणसे कम नहीं है । मनुष्य - देहको 'कायम रखनेके लिए बकरेका खून करनेको मैं कभी तैयार न होऊंगा। मैं मानता हूं कि जो प्राणी जितना ही अधिक असहाय होगा, वह मनुष्यकी घातकता से बचने के लिए मनुष्य का उतना ही अधिक अधिकारी है । परंतु इसके लिए काफी योग्यता या अधिकार प्राप्त किये बिना मनुष्य श्राश्रय देनेमें समर्थ नहीं हो सकता । बकरोंको इस क्रूर होमसे बचानेके लिए मुझे जो है उससे बहुत अधिक आत्मशुद्धि और त्यागकी आवश्यकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि अभी तो इस शुद्धि और "त्यागका रटन करते-करते ही मुझे यह देह छोड़नी पड़ेगी । परमात्मा करे ऐसा कोई तेजस्वी पुरुष अथवा कोई तेजस्वी सती उत्पन्न हो, जो इस महापातकसे मनुष्य को बचाये, निर्दोष जीवोंकी रक्षा करे और मंदिरको शुद्ध करे । मैं निरंतर यह प्रार्थना किया करता हूं । ज्ञानी, बुद्धिमान् त्याग-वृत्ति और भावना प्रधान बंगाल क्योंकर इस को सहन कर रहा है ?