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अध्याय १६ : असत्य-रूपी जहर
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नका अपना पता मुझे दिया और हर रविवारको अपने यहां भोजनके लिए निमंत्रित किया था । इसके सिवा भी जब-जब अवसर आता मुझे बुलाती । चाहकर मेरी शरम तुड़वाती। युवती स्त्रियोंसे पहचान करवाती और उनके साथ बातें करनेके लिए ललचाती । एक बाई उसीके यहां रहती थी । उसके साथ बहुत बातें करवाती। कभी-कभी हमें अकेले भी छोड़ देती ।
पहले-पहल तो मुझे यह बहुत अटपटा मालूम हुआ । सूझ ही न पड़ता कि बातें क्या करू ! हंसी - दिल्लगी भी भला क्या करता, पर वह बाई मेरा हौसला बंढ़ाती । मैं इसमें ढलने लगा। हर रविवारकी राह देखता । अब तो उसकी बातों में भी मन रमने लगा ।
इधर बुढ़िया भी मुझे लुभाये जाती । वह हमारे इस मेल-जोलको बड़ी दिलचस्पी से देखती । मैं समझता हूं उसने तो हम दोनोंका भला ही सोचा होगा । अब क्या करूं ? अच्छा होता यदि पहलेसे ही इस बाईसे अपने विवाह की बात कह दी होती । क्योंकि फिर भला वह क्यों मुझ जैसेके साथ विवाह करना चाहती ? अब भी कुछ बिगड़ा नहीं । समय है, सच कह देने से अधिक संकट में न पडूंगा ।' यह सोचकर मैंने उसे चिट्ठी लिखी। अपनी स्मृतिके अनुसार उसका सार नीचे देता हूं-
“जबसे ब्रायटनमें आपसे भेंट हुई, तबसे आप मुझे स्नेहकी दृष्टि से देखती आ रही हैं। मां जिस प्रकार अपने बेटेकी सम्हाल रखती है उसी प्रकार आप मेरी सम्हाल रखती हैं । श्रापका खयाल है कि मुझे विवाह कर लेना चाहिए और इसलिए आप युवतियोंके साथ मेरा परिचय कराती हैं । इसके पहले कि ऐसे संबंधकी सीमा और आगे बढ़े, मुझे प्रापको यह कह देना चाहिए कि मैं आपके प्रेमके योग्य नहीं । मैं विवाहित हूं और यह बात मुझे उसी दिन कह देना चाहिए थी, जिस दिनसे मैं आपके घर आने-जाने लगा | हिंदुस्तानके विवाहित विद्यार्थी यहां अपने विवाहकी बात जाहिर नहीं करते, और इसीलिए मैं भी उसी ढर्रेपर चल पड़ा; पर अब मैं महसूस करता हूं कि मुझे अपने विवाहकी बात बिलकुल ही न छिपानी चाहिए थी। मुझे तो आगे बढ़कर यह भी कह देना चाहिए कि मेरी शादी बचपन में ही हो गई थी और मेरे एक लड़का भी है । यह बात तो मैंने आपसे अबतक छिपा रक्खी थी, इसपर मुझे बड़ा पश्चात्ताप हो रहा है । परंतु अब भी ईश्वरने मुझे