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आत्म-कथा : भाग ३
ब्रह्मचर्यका पालन करनेके लिए पहले स्वादेंद्रियको वशमें करना चाहिए। मैंने खुद अनुभव करके देखा है कि यदि स्वादको जीत लें तो फिर ब्रह्मचर्य अत्यंत सुगम हो जाता है। इस कारण इसके बाद मेरे भोजन प्रयोग केवल अन्नाहारकी दृष्टिसे नहीं, पर ब्रह्मचर्यकी दृष्टिसे होने लगे। प्रयोग द्वारा मैंने अनुभव किया कि भोजन कम, सादा, बिना मिर्च-मसालेका और स्वाभाविक रूपमें करना चाहिए। मैंने खुद छः साल तक प्रयोग करके देखा है कि ब्रह्मचारीका आहार वन-पके फल है। जिन दिनों मैं हरे या सूखे वन-पके फलोंपर ही रहता था, उन दिनों जिस निर्विकारताका अनुभव होता था, वह खुराकमें परिवर्तन करनेके बाद न हुआ। फलाहारके दिनोंमें ब्रह्मचर्य सरल था; दुग्धाहारके कारण अब कष्टसाध्य हो गया है। फलाहार छोड़कर दुग्धाहार क्यों ग्रहण करना पड़ा, इसका जिक्र समय अानेपर होगा ही। यहां तो इतना ही कहना काफी है कि ब्रह्मचारीके लिए दूधका आहार विघ्नकारक है, इसमें मुझे लेशमात्र संदेह नहीं। इससे कोई यह अर्थ न निकाल ले कि हर ब्रह्मचारीके लिए दूध छोड़ना जरूरी है। आहारका असर ब्रह्मचर्यपर क्या और कितना पड़ता है, इस संबंधमें अभी अनेक प्रयोगोंकी आवश्यकता है । दूधके सदृश शरीरके रग-रेशे मजबूत बनानेवाला और उतनी ही आसानी से हजम हो जानेवाला फलाहार अबतक मेरे हाथ नहीं लगा है । न कोई वैद्य, हकीम या डाक्टर ऐसे फल या अन्न बतला सके हैं। इस कारण दुधको विकारोत्पादक जानते हुए भी अभी मैं उसे छोड़नेकी सिफारिश किसीसे नहीं कर सकता।
बाहरी उपचारोंमें जिस प्रकार पाहारके प्रकारकी और परिमाणकी मर्यादा आवश्यक है उसी प्रकार उपवासकी बात भी समझनी चाहिए। इंद्रियां ऐसी बलवान् हैं कि उन्हें चारों ओरसे, ऊपर-नीचे दशों दिशाओंसे, जब घेरा डाला जाता है तभी वे कब्जे में रहती हैं। सब लोग इस बातको जानते हैं कि आहार बिना वे अपना काम नहीं कर सकतीं। इसलिए इस बातमें मुझे जरा भी शक नहीं है कि इंद्रिय-दमनके हेतु इच्छापूर्वक किये उपवासोंसे इंद्रिय-दमनमें बड़ी सहायता मिली है। कितने ही लोग उपवास करते हुए भी सफल नहीं होते। इसका कारण यह है कि वे यह मान लेते हैं कि केवल उपवाससे ही सब काम हो जायगा और बाहरी उपवास-मात्र करते हैं; पर मनमें छप्पन भोगोंका ध्यान करते रहते हैं । उपवासके दिनोंमें इन विचारोंका स्वाद चक्खा करते हैं कि उपवास पूरा होनेपर