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आत्म-कथा : भाग ३
अविश्वास था। और इसलिए मेरा मन अनेक तरंगोंमें और अनेक विकारोंके अधीन रहता था। मैंने देखा कि बतबंधनसे दूर रहकर मनुष्य मोहमें पड़ता है। व्रतसे अपनेको बांधना मानो व्यभिचारसे छूटकर एक पत्नीसे संबंध रखना है। "मेरा तो विश्वास प्रयत्नमें है, व्रतके द्वारा मैं बंधना नहीं चाहता" यह वचन निर्बलतासूचक है और उसमें छिपे-छिपे भोगकी इच्छा रहती है। जो चीज त्याज्य है, उसे सर्वथा छोड़ देने में कौन-सी हानि हो सकती है ? जो सांप मुझे डसनेवाला है उसको मैं निश्चय-पूर्वक हटा ही देता हूं, हटानेका केवल उद्योग नहीं करता; क्योंकि मैं जानता हूं कि महज प्रयत्नका परिणाम होनेवाला है मृत्यु । 'प्रयत्न 'में सांपकी विकरालताके स्पष्ट ज्ञानका अभाव है। उसी प्रकार जिस चीजके त्यागका हम प्रयत्न-मात्र करते हैं उसके त्यागकी आवश्यकता हमें स्पष्ट रूपसे दिखाई नहीं दी है, यही सिद्ध होता है । 'मेरे विचार यदि बादको बदल जायं तो?' ऐसी शंकासे बहुत बार हम व्रत लेते हुए डरते हैं । इस विचारमें स्पष्ट दर्शनका अभाव है। इसीलिए निष्कुलानंदने कहा है--
त्याग न टके रे वैराग बिना जहां किसी चीजसे पूर्ण वैराग्य हो गया है वहां उसके लिए व्रत लेना अपने आप अनिवार्य हो जाता है ।
ब्रह्मचर्य--२
खूब चर्चा और दृढ़ विचार करनेके बाद १९०६में मैंने ब्रचार्य-व्रत धारण किया। व्रत लेने तक मैंने धर्म-पत्नीसे इस विषयमें सलाह न ली थी। व्रतके समय अलबत्ता ली। उसने उसका कुछ विरोध न किया ।
यह व्रत लेना मुझे बड़ा कठिन मालूम हुआ । मेरी शक्ति कम थी। मुझे चिंता रहती कि विकारोंको क्योंकर दबा सकूँगा? और स्वपत्नीके साथ विकारोंसे अलिप्त रहना एक अजीब बात मालूम होती थी। फिर भी मैं देख रहा था कि वही मेरा स्पष्ट कर्त्तव्य है। मेरी नीयत साफ थी। इसलिए यह