________________
अध्याय ८ : ब्रह्मचर्य--२
२०६ सोचकर कि ईश्वर शक्ति और सहायता देगा, मैं कूद पड़ा ।
__ आज २० सालके बाद उस व्रतको स्मरण करते हुए मुझे सानंदाश्चर्य होता है । संयम-पालन करनेका भाव तो मेरे मनमें १९०१से ही प्रबल था और उसका पालन में कर भी रहा था; परंतु जो स्वतंत्रता और आनंद मैं अब पाने लगा वह मुझे नहीं याद पड़ता कि १९०६के पहले मिला हो; क्योंकि उस समय मैं वासनाबद्ध था--कभी भी उसके अधीन हो जानेका भय रहता था; किंतु अब वासना मुझपर सवारी करने में असमर्थ हो गई।
फिर अब मैं ब्रह्मचर्यकी महिमा और अधिकाधिक समझने लगा। यह व्रत मैंने फीनिक्समें लिया था। घायलोंकी शुश्रूषासे छुट्टी पाकर मैं फीनिक्स गया था। वहांसे मुझे तुरंत जोहान्सबर्ग जाना था। वहां जानेके एक ही महीनेके अंदर सत्याग्रह-संग्रामकी नींव पड़ी। मानो यह ब्रह्मचर्यव्रत उसके लिए मुझे तैयार करने ही न आया हो । सत्याग्रहका खयाल मैंने पहलेसे ही बना रक्खा हो, सो वात नहीं। उसकी उत्पत्ति तो अनायास--अनिच्छासे--हुई। पर मैंने देखा कि उसके पहले मैंने जो-जो काम किये थे--जैसे फीनिक्स जाना, जोहान्सबर्गका भारी घर-खर्च कम कर डालना और अंतको ब्रह्मचर्यका व्रत लेना--वे मानो इसकी पेश-बंदी थे।
ब्रह्मचर्यका सोलह आने पालनका अर्थ है ब्रह्म-दर्शन। यह ज्ञान मुझे शास्त्रों द्वारा न हुआ था। यह तो मेरे सामने धीरे-धीरे अनुभव-सिद्ध होता गया। उससे संबंध रखनेवाले शास्त्र-वचन मैंने बादको पढ़े ब्रह्मचर्यमें शरीर-रक्षण, बुद्धि-रक्षण और आत्माका रक्षण, सब कुछ है--यह बात मैं व्रतके बाद दिनोंदिन अधिकाधिक अनुभव करने लगा; क्योंकि अब ब्रह्मचर्यको एक घोर तपश्चर्या रहने देनेके बदले रसमय बनाना था; उसीके बलपर काम चलाना था। इसलिए अब उसकी खूबियोंके नित नये दर्शन मुझे होने लगे । . . .
पर मैं जो इस तरह उससे रसकी चूंट पी रहा था, उससे कोई यह न समझे कि मैं उसकी कठिनताको अनुभव न कर रहा था। आज यद्यपि मेरे छप्पन साल पूरे हो गये हैं, फिर भी उसकी कठिनताका अनुभव तो होता ही है । यह अधिकाधिक समझता जाता हूं कि यह प्रसिधारा-व्रत है । अब भी निरंतर जागरूकताकी आवश्यकता देखता हूं।