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आत्म-कथा : भाग ३
छुआछूतका विचार भी बहुतोंमें था । द्राविड़ी रसोईघर बिलकुल जुदा था । इन प्रतिनिधियोंको तो दृष्टि-दोषभी बरदाश्त न होता था । उनके लिए कंपाउंड में एक जुदी पाकशाला बनाई गई थी । उसमें धुम्रां इतना था कि श्रादमीका दम घुट जाय । खान-पान सब उसीमें होता । रसोईघर क्या था, मानो एक संदूक था, सब तरफसे बंद !
मुझे यह वर्ण-धर्म प्रखरा । महासभा में ग्रानेवाले प्रतिनिधियोंको जब इतनी छूत लगती है तो जो लोग इन्हें अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजते हैं. उन्हें कितनी छूत लगती होगी, इसकी त्रैराशिक लगानेपर मेरे मुंहसे सहसा निकल पड़ा -- “ श्रोफ !
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गंदगी की सीमा नहीं । चारों ओर पानी ही पानी हो रहा था । पाखाने कम थे । उनकी बदबूकी यादसे आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं । मैंने एक स्वयंसेवक का ध्यान उसकी ओर खींचा। उसने बेधड़क होकर कहा -- " यह तो भंगीका काम है । ” मैंने झाड़ू मंगाई । वह मेरा मुंह ताकता रहा । आखिर
ही झाडू खोज लाया । पाखाना साफ किया । पर यह तो हुआ अपनी सुविधा के लिए । लोग इतने ज्यादा थे और पाखाने इतने कम थे कि कई बार उनके साफ होनेकी जरूरत थी । पर यह मेरे काबूके बाहर था । इसलिए मुझे सिर्फ अपनी सुविधा करके संतोष मानना पड़ा। मैंने देखा कि औौरोंको यह गंदगी खलती न थी ।
पर यहीं तक बस नहीं है । रातके समय तो कोई कमरेके बरामदे में ही पाखाने बैठ जाता था । सुबह मैंने स्वयंसेवकको वह मैला दिखाया । पर कोई साफ करनेके लिए तैयार न था । यह गौरव प्राखिर मुझे ही प्राप्त हुआ । आजकल इन बातों में यद्यपि थोड़ा-बहुत सुधार हुआ है, तथापि अविचारी प्रतिनिधि अव भी कांग्रेसके कैंपको जहां-तहां मल त्याग करके बिगाड़ देते हैं। और सब स्वयंसेवक उसे साफ करनेको तैयार नहीं होते ।
मैंने देखा कि यदि ऐसी गंदगी में कांग्रेसकी बैठक अधिक दिनोंतक जारी रहे तो अवश्य बीमारियां फैल निकलें ।