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आत्म-कथा : भाग ३
प्रयत्नशील ब्रह्मचारी तो नित्य अपनी त्रुटियोंका दर्शन करेगा, अपने हृदयके कोने-कुचरेमें छिपे विकारोंको पहचान लेगा और उन्हें निकाल बाहर करनेका सतत उद्योग करेगा। जबतक अपने विचारोंपर इतना कब्जा न हो जाय कि अपनी इच्छाके बिना एक भी विचार मनमें न आने पावे तबतक वह संपूर्ण ब्रह्मचर्य नहीं। जितने भी विचार हैं, वे सब एक तरह विकार हैं। उनको वशमें करनेके मानी हैं मनको वशमें करना। और मनको वशमें करना वायुको वशमें करनेसे भी कठिन है। इतना होते हुए भी यदि आत्मा है तो फिर यह भी साध्य है ही। रास्तेमें हमें बड़ी कठिनाइयां आती हैं, इससे यह न मान लेना चाहिए कि वह असाध्य है। वह तो परम-अर्थ है । और परम-अर्थके लिए परम प्रयत्नकी आवश्यकता हो तो इसमें कौन आश्चर्य की बात है ? ।
परंतु देस आनेपर मैंने देखा कि ऐसा ब्रह्मचर्य महज प्रयत्नसाध्य नहीं है। कह सकते हैं कि जबतक मैं इस मू में था कि फलाहारसे विकार समूल नष्ट हो जायंगे; और इसलिए अभिमानसे मानता था कि अब मुझे कुछ करना बाकी नहीं रहा है ।
परंतु इस विचारके प्रकरण तक पहुंचनेमें अभी विलंब है। इस बीच इतना कह देना आवश्यक है कि ईश्वर-साक्षात्कार करनेके लिए मैंने जिस ब्रह्मचर्यकी व्याख्या की है उसका पालन जो करना चाहते हैं वे यदि अपने प्रयत्नके साथ ही ईश्वरपर श्रद्धा रखनेवाले होंगे तो उन्हें निराश होनेका कोई कारण नहीं है।
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्ज रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥' निराहारीके विषय तो शांत हो जाते हैं; परंतु रसोंका शमन नहीं होता। ईश्वर-दर्शनसे रस भी शांत हो जाते है।
इसलिए आत्मार्थीका अंतिम साधन तो राम-नाम और राम-कृपा ही है। इस बातका अनुभव मैंने हिंदुस्तान आनेपर ही किया ।
गीता, अध्याय २, श्लोक ५६ ।