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आत्म-कथा : भाग ३
तरह जागकर काटी। कमरेमें यहांसे वहां टहलता रहा । परंतु गुत्थी किसी तरह सुलझती न थी। सैकड़ों रुपयोंकी भेंटें न लेना भारी पड़ रहा था; पर ले लेना उससे भी भारी मालूम होता था ।
मैं चाहे इन भेंटोंको पचा भी सकता; पर मेरे बालक और पत्नी ? उन्हें तालीम तो सेवाकी मिल रही थी। सेवाका दाम नहीं लिया जा सकता था, यह हमेशा समझाया जाता था। घरमें कीमती जेवर आदि मैं नहीं रखता था। सादगी बढ़ती जाती थी। ऐसी अवस्थामें सोनेकी घड़ियां कौन रक्खेगा ? सोनेकी कंठी और हीरेकी अंगूठियां कौन पहनेगा ? गहनोंका मोह छोड़नेके लिए मैं उस समय भी औरोंसे कहता रहता था। अब इन गहनों और जवाहरातको लेकर मैं क्या करूंगा ?
____ मैं इस निर्णय पर पहुंचा कि वे चीजें मैं हरगिज नहीं रख सकता। पारसी हस्तमजी इत्यादि को इन गहनोंके ट्रस्टी बनाकर उनके नाम एक चिट्ठी तैयार की और सुबह स्त्री-पुत्रादिसे सलाह करके अपना बोझ हलका करनेका निश्चय किया।
मैं जानता था कि धर्मपत्नीको समझाना मुश्किल पड़ेगा। मुझे विश्वास था कि बालकोंको समझानेमें जरा भी दिक्कत पेश न आवेगी, अतएव उन्हें वकील बनाने का विचार किया ।
वच्चे तो तुरंत समझ गये। वे बोले, "हमें इन गहनोंसे कुछ मतलब नहीं; ये सब चीजें हमें लौटा देनी चाहिए और यदि जरूरत होगी तो क्या हम खुद नहीं बना सकेंगे ?"
मैं प्रसन्न हुआ। "तो तुम बा को समझायोगे न ? ' मैंने पूछा ।
"जरूर-जरूर। वह कहां इन गहनोंको पहनने चली है ? वह रखना चाहेगी भी तो हमारे ही लिए न? पर जब हमें ही इनकी जरूरत नहीं है तब फिर वह क्यों जिद करने लगी ?"
. परंतु काम अंदाजसे ज्यादा मुश्किल साबित हुआ ।
"तुम्हें चाहे जरूरत न हो और लड़कोंको भी न हो। बच्चोंका क्या ? जैसा समझादें समझ जाते हैं। मुझे न पहनने दो; पर मेरी बहुओंको तो जरूरत होगी? और कौन कह सकता है कि कल क्या होगा? जो चीजें लोगोंने इतने