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अध्याय ३: पहला मुकदमा
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पहला मुकदमा
बंबईमें एक ओर कानूनका अध्ययन शुरू हुआ, दूसरी ओर भोजनके प्रयोग । उसमें मेरे साथ वीरचंद गांधी सम्मिलित हुए। तीसरी ओर भाईसाहब मेरे लिए मुकदमे खोजने लगे ।
कानून पढ़नेका काम ढिलाईसे चला । 'सिविल प्रोसिजर कोड' किसी तरह आगे नहीं चल सका। हां, कानून शहादत ठीक चला। वीरचंद गांधी सालिसिटरीकी तैयारी करते थे, इसलिए वकीलोंकी बातें बहुत करते -- 'फोरोजशाहकी योग्यता और निपुणताका कारण है उनका कानून विषयक अगाध ज्ञान, कानून-शहादत तो उन्हें बर- जबान है । दफा बत्तीसका एक-एक मुकदमा वह जानते हैं । बदरुद्दीन तैयबजीकी वहस करने और दलीलें देनेकी शक्ति ऐसी अद्भुत है कि जज लोग भी चकित हो जाते हैं । '
ज्यों-ज्यों मैं ऐसे प्रतिरथी-महारथियोंकी बातें सुनता त्यों-त्यों मेरे छक्के
छूट
" बैरिस्टर लोगोंका पांच-सात सालतक अदालतोंमें मारे-मारे फिरना कोई गैर-मामूली बात नहीं है । इसीसे मैंने सालिसिटर होना ठीक समझा है तीन साल बाद यदि तुम अपने खर्च भरके लिए पैदा कर सको तो बहुत समझना ।" खर्च हर महीने चढ़ रहा था । बाहर वैरिस्टरकी तख्ती लगी रहती और अंदर बैरिस्टरी की तैयारी होती रहती। मेरा दिल इन दोनों बातों में किसी तरह मेल न बैठा सकता था। इस कारण मेरा अध्ययन बड़ी परेशानीमें चलता । मैं पहले कह चुका हूं कि कानून - शहादत में कुछ मेरा दिल लगा । मेनका 'हिंदू-लॉ' बड़ी दिलचस्पी के साथ पढ़ा। परंतु पैरवी करनेकी हिम्मत अभी न आई । किंतु अपना यह दु:ख मैं किससे कहता ? ससुरालमें आई नई बहूकी तरह मेरी हालत हो गई !
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इतने में ही तकदीरसे ममीबाईका मुकदमा मुझे मिला। मामला स्माल का कोर्ट में था । प्रश्न उपस्थित हुआ कि 'दलालको कमीशन देना पड़ेगा । '