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आत्म-कथा : भाग २
थे। सबको भूख लग रही थी; पर जबतक चंदा न मिले तबतक भोजन कैसे करते ? खूब मिन्नत-खुशामद की गई; पर वह टस-से-मस न हुए। गांवके दूसरे व्यापारियोंने भी उन्हें समझाया। सारी रात इसी खींचा-तानीमें गई। गुस्सा तो कई साथियोंको अाया; पर किसीने अपना सौजन्य न छोड़ा। ठेठ सुबह जाकर वह पसीजे और छ: पौंड दिये। तब जाकर हम लोगोंको खाना नसीब हुना। यह घटना टोंगाटकी है। इसका असर उत्तर किनारेपर ठेठ स्टंगरतक तथा अंदर ठेठ चार्ल्सटाउनतक पड़ा और चंदा-वसूलीका हमारा काम बड़ा सरल हो गया ।
परंतु प्रयोजन केवल इतना ही न था कि चंदा एकत्र किया जाय । आवश्यकतासे अधिक रुपया जमा न करनेका तत्व भी मैने मान लिया था।
सभा प्रति सप्ताह अथवा प्रति मास आवश्यकताके अनुसार होती। उसमें पिछली सभाकी कार्रवाई पढ़ी जाती और अनेक बातोंपर चर्चा होती। चर्चा करनेकी तथा थोड़ेमें मतलबकी बात कहनेकी पादत लोगोंको न थी। लोग खड़े होकर बोलने में सकुचाते । मैंने सभाके नियम उन्हें समझाये और लोगोंने उन्हें माना। इससे होनेवाला लाभ उन्होंने देखा और जिन्हें सभात्रों में बोलनेका रफ्त न था वे सार्वजनिक कामोंके लिए बोलने और विचारने लगे।
सार्वजनिक कामोंमें छोटी-छोटी बातोंमें बहुत-सा खर्च हो जाया करता है, यह मैं जानता था। शुरूमें तो रसीद-बुकतक न छपानेका निश्चय रक्खा था। मेरे दफ्तरमें साईक्लोस्टाइल था, उसपर रसीदें छपा लीं। रिपोर्ट भी इसी तरह छपती। जब रुपया-पैसा काफी या गया, सभ्योंकी संख्या बढ़ गई, तभी रसीदें इत्यादि छपाई गईं। ऐसी किफायतशारी हर संस्थामें आवश्यक है। फिर भी मैं जानता हूं कि सब जगह ऐसा नहीं होता है। इसलिए इस छोटी-सी उगती हईसंस्थाके परवरिशके समयका इतना वर्णन करना मैंने ठीक समझा। लोग रसीद लेनेकी परवा न करते, फिर भी उन्हें आग्रह-पूर्वक रसीद दी जाती। इस कारण हिसाब शुरूसे ही पाई-पाईका साफ रहा, और मैं मानता हूं कि आज भी नेटाल-कांग्रेसके दफ्तरमें १८९४के बही-खाते ब्योरेवार मिल जायंगे। किसी भी संस्थाका सबिस्तार हिसाव उसकी नाक है। उसके बिना वह संस्था अंतको जाकर गंदी और प्रतिष्ठा-हीन हो जाती है। शुद्ध हिसाबके बिना शुद्ध सत्यकी