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आत्म-कथा : भाग ३
न थी। और गुजरातीके द्वारा भला वहां पढ़ाई कैसे हो सकती थी ? या ती अंग्रेजी द्वारा हो सकती थी, या बहुत प्रयास करनेपर टूटी-फूटी तमिल या हिंदी के द्वारा। इन तथा दूसरी त्रुटियोंको दर-गुजर करना मेरे लिए मुश्किल था।
मैं खुद बच्चोंको पढ़ानेकी थोड़ी-बहुत कोशिश करता; परंतु पढ़ाई नियमित रूपसे न चलती। इधर गुजराती शिक्षक भी मैं अपने अनुकूल न खोज सका।
मैं सोच में पड़ा। मैंने एक ऐसे अंग्रेजी शिक्षकके लिए विज्ञापन दिया,, जो मेरे विचारोंके अनुसार बालकोंको शिक्षा दे सके। सोचा कि इस तरह जो शिक्षक मिल जायगा, उससे कुछ तो नियमित पढ़ाई होगी और कुछ मैं खुद जिस तरह बन पड़ेगा काम चलाऊंगा। सात पौंड वेतनपर एक अंग्रेज महिलाको रक्खा और किसी तरह काम आगे चलाया ।
मैं बालकोंसे गुजरातीमें ही बातचीत करता। इससे उन्हें कुछ गुजरातीका ज्ञान हो जाता था। उन्हें देस भेज देने के लिए मैं तैयार न था। उस समय भी मेरा यह विचार था कि छोटे बच्चोंको मां-बापसे दूर न रखना चाहिए। सुव्यवस्थित घरमें बालक जो शिक्षा अपने-आप पा लेते हैं वह छात्रालयोंमें नहीं पा सकते हैं। अतएव अधिकांशमें वे मेरे ही पास रहे। हां, भानजे और बड़े लड़केको मैंने कुछ महीनोंके लिए देसके जुदा-जुदा छात्रालयोंमें भेज दिया था; पर शीघ्र ही वापस बुला लिया। बादको मेरा बड़ा लड़का, वयस्क हो जानेपर अपनी इच्छासे अहमदाबादके हाईस्कूलमें पढ़नेके लिए दक्षिण अफ्रीकासे चला आया। भानजेके बारेमें तो मेरा खयाल है कि जो शिक्षण में दे रहा था उससे उसे संतोष था। वह कुछ दिन बीमार रहकर भर-जवानीमें इस लोकको छोड़ गया। शेष तीन लड़के कभी किसी पाठशालामें पढ़ने न गये। सिर्फ सत्याग्रहके सिलसिलेमें स्थापित पाठशालामें उन्होंने नियमित रूपसे कुछ पढ़ा था ।
मेरे ये प्रयोग अपूर्ण थे। जितना मैं चाहता था उतना समय बालकोंको न दे सकता था। इस तथा अन्य अनिवार्य अड़चनोंके कारण मैं जैसा चाहता था वैसा अक्षर-ज्ञान उन्हें न दे सका। मेरे तमाम लड़कोंको थोड़ी मात्रामें यह शिकायत मुझसे रही है। क्योंकि जब-जब वे 'बी० ए०' 'एम० ए०' अथवा 'गैदिक्युलेट'के भी समागममें आते हैं तब-तब ने अपने अंदर स्कूलमें न पढ़नेकी