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अध्याय ५ : बाल-शिक्षण
१६६ मानी जानेवाली संस्थाओं के हिसाब-किताबका कोई ठिकाना नहीं है । उनके प्रबंधक ही उनके मालिक बन बैठे हैं और ऐसे बन गये हैं, मानो वे किसीके प्रति जवाबदेह ही नहीं थे । कुदरत जिस प्रकार नित्य पैदा करती और नित्य खाती है उसी प्रकार सार्वजनिक संस्थानोंका जीवन होना चाहिए। जिस संस्थाकी सहायता करनेके लिए लोग तैयार न हों उसे सार्वजनिक संस्थाकी हैसियत से कायम रहनेका अधिकार नहीं । वार्षिक चंदा संस्थाकी लोकप्रियता और उसके संचालकोंकी ईमानदारीकी कसौटी है; और मेरा यह मत है कि प्रत्येक संस्थाको चाहिए कि वह अपने को इस कसौटीपर कसे ।
इससे किसी तरह की गलतफहमी न होनी चाहिए। यह टीका उन संस्थाोंपर लागू नहीं होती जिन्हें मकान आदिकी जरूरत होती है । संस्थाका चालू खर्च लोगोंकी सहायता से चलना चाहिए ।
दक्षिण atara सत्याग्रह के समय मेरे ये विचार दृढ़ हुए । छः सालतक यह भारी लड़ाई बिना स्थायी चंदेके चली, हालांकि उसके लिए लाखों रुपये की श्रावश्यकता थी । ऐसे समय मुझे याद हैं जबकि यह नहीं कह सकते थे कि कलके लिए खर्च कहांसे आवेगा ? परंतु ये बातें आगे आने ही वाली हैं, इसलिए यहां इनका जिक्र न करूंगा ।
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बाल- शिक्षण
जनवरी १८९७ में मैं जब डरबन उतरा तब मेरे साथ तीन बालक थे । एक मेरा १० सालका भानजा, दूसरे मेरे दो लड़के -- एक नौ सालका और दूसरा पांच सालका । अब सवाल यह पेश हुआ कि इनकी पढ़ाई-लिखाईका क्या प्रबंध करें ।
गोरोंकी पाठशाला में अपने बच्चोंको भेज सकता था; पर वह उनकी 'मेहरबानी से और बतौर छूटके । दूसरे हिंदुस्तानियों के लड़के उनमें नहीं पढ़ सकते थे | हिंदुस्तानी बच्चों को पढ़ानेके लिए ईसाई मिशन के मदरसे थे । उनमें अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए मैं तैयार न था । वहां की शिक्षा-दीक्षा मुझे पसंद