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अध्याय २६ : राजनिष्ठा और शुश्रूषा
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सेव द किंग 'का स्वर मैंने साधा । सभायोंमें जब वह गाया जाता, तब अपना सुर उसमें मिलाता । और बिना श्राडंबर किये बफादारी दिखाने के जितने अवसर या सबमें शरीक होता ।
अपनी जिंदगी में कभी मैंने इस राजनिष्ठाकी दुकान नहीं लगाई । अपना fast name are लेनेकी कभी इच्छातक न हुई । वफादारीको एक तरहका कर्ज समझकर मैंने उसे अदा किया है ।
जब भारत आया, तब महारानी विक्टोरियाकी डायमंड जुबिलीकी तैयारियां हो रही थीं । राजकोटमें भी एक समिति बनाई गई । उसमें मैं निमंत्रित किया गया । मैंने निमंत्रण स्वीकार किया; पर मुझे उसमें ढकोसलेकी बूाई | मैंने देखा कि उसमें बहुतेरी बातें महज दिखावेके लिए की जाती हैं । यह देखकर मुझे दुःख हुआ । मैं सोचने लगा कि ऐसी दशा में समितिमें रहना चाहिए, या नहीं ? अंतको यह निश्चय किया कि अपने कर्तव्यका पालन करके संतोष मान लेना ही ठीक है ।
एक तजवीज यह थी कि पेड़ लगाये जायें। इसमें मुझे पाखंड दिखाई दिया। मालूम हुआ कि यह सब महज साहब लोगोंको खुश करनेके लिए किया जाता है । मैंने लोगोंको यह समझाने की कोशिश की कि पेड़ लगाना लाजिमी नहीं किया गया है, सिर्फ सिफारिश भर की गई है । यदि लगाना ही हो तो फिर सच्चे दिलसे लगाना चाहिए, नहीं तो मुतलक नहीं । मुझे कुछ-कुछ ऐसा याद पड़ता है कि जब मैं ऐसी बात कहता तो लोग उसे हंसीमें उड़ा देते थे। जो हो, अपने हिस्सेका पेड़ मैंने अच्छी तरह बोया और उसकी परवरिश भी की, यह अच्छी तरह याद है । 'गॉड सेव दि किंग' मैं अपने परिवार के बच्चोंको भी सिखाता था । मुझे याद है कि ट्रेनिंग कालेज के विद्यार्थियोंको मैंने यह सिखाया था, पर तुझे यह ठीक-ठीक याद नहीं पड़ता कि यह इसी मौकेपर सिखाया था, अथवा सप्तम sash राज्यारोहण के प्रसंगपर । आगे चलकर मुझे यह गीत गाना श्रखरा । ज्यों-ज्यों मेरे मनमें अहिंसाके विचार प्रबल होते गये, त्यों-त्यों मैं अपनी वाणी और विचारकी अधिक चौकीदारी करने लगा । इस गीतमें ये दो पंक्तियां भी हैं—
'उसके शत्रुओं का नाश कर; उनकी चालों fare कर ! '