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आत्म-कथा : भाग २
में मिलने गया तब दूसरे मिलने वाले उन्हें घेरे हुए थे। उन्होंने कहा, "मुझे अंदेशा ... कि आपकी बात में यहांके लोग दिलचस्पी न लेंगे । आप देखते ही हैं कि यहां हम लोगोंको कम मुसीबतें नहीं हैं । फिर भी आपको तो भरसक कुछ-न-कुछ करना ही है । इस काम में आपको महाराजाओं की मददकी जरूरत होगी । 'ब्रिटिश इंडिया एसोसियेशन के प्रतिनिधियोंसे मिलिएगा। राजा सर प्यारीमोहन मुकर्जी श्रीर महाराजा टागोरसे भी मिलिएगा। दोनों उदार हृदय हैं और सार्वजनिक कामोंमें अच्छा भाग लेते हैं । " मैं इन सज्जनोंसे मिला; पर वहां मेरी दाल न गली । दोनोंने कहा-- "कलकत्ता में सभा करना आसान बात नहीं, पर यदि करना ही हो तो उसका बहुत-कुछ दारोमदार सुरेंद्रनाथ बनर्जीपर है । ' मेरी कठिनाइयां बढ़ती जाती थीं । 'अमृतबाजार पत्रिका के दफ्तर में गया। वहां भी जो सज्जन मिले उन्होंने मान लिया कि मैं कोई रमताराम वहां या पहुंचा होऊंगा । 'बंगवासी 'बालोंने तो हद कर दी । मुझे एक घंटे तक तो बिठाये ही रक्खा । श्रौरोंके साथ तो संपादक महोदय बातें करते जाते; पर मेरी ओर आंख उठाकर भी न देखते । एक घंटा राह देखनेके बाद मैंने अपनी बात उनसे छेड़ी । तब उन्होंने कहा--' 'आप देखते नहीं, हमें कितना काम रहता है ? आपके जैसे कितने ही यहां आते रहते हैं । आप चले जायं, यही अच्छा है । हम आपकी बात सुनना नहीं चाहते । " मुझे जरा देरके लिए रंज तो हुआ, पर मैं संपादकका दृष्टि-बिंदु समझ गया । 'बंगवासी ' की ख्याति भी सुनी थी । मैं देखता था कि उनके पास आने-जानेवालोंका तांता लगा ही रहता था। ये सब उनके परिचित थे । उनके अखबार के लिए विषयोंकी कमी न थी । दक्षिण अभीकाका नाम तो उन दिनोंमें नया ही नया था । नित नये आदमी आकर अपनी कष्ट - कथा उन्हें सुनाते । अपना-अपना दुःख हरेकके लिए सबसे बड़ा सवाल था; परंतु संपादक के पास ऐसे दुखियोंका झुंड लगा रहता । बेचारा सबको तसल्ली कैसे दे सकता है ! फिर दुःखी आदमी के लिए तो संपादककी सत्ता एक भारी बात होती है । यह दूसरी बात है कि संपादक जानता रहता है. कि उसकी सत्ता दफ्तरके दरवाजेके बाहर पैर नहीं रख सकती ।
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पर मैंने हिम्मत न हारी । दूसरे संपादकोंसे मिला । अपने मामूलके माफिक अंग्रेजोंसे भी मिला । 'स्टेट्समैन' और 'इंग्लिशमैन' दोनों दक्षिण