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आत्म-कथा : भाग ३
बचाना चाहते हों तो मैं जिस तरह बताऊं, आपको छिपकर इस घरसे निकल जाना चाहिए।" एक ही दिन मुझे एक-दूसरेसे विपरीत दो काम करनेका समय आया। जबकि जान जानेका भय केवल कल्पित मालूम होता था तब मि० लाटनने मुझे खुले आम बाहर चलनेकी सलाह दी और मैंने उसे माना; पर जब खतरा प्रांखोंके सामने था तब दूसरे मित्रने इससे उलटी सलाह दी और उसे भी मैंने मान लिया। अब कौन बता सकता है कि मैं अपनी जानकी जोखिमसे डरा, अथवा मित्रके जान-मालको या अपने बाल-बच्चोंको हानि पहुंचने के डरसे, या तीनोंके ? कौन निश्चयपूर्वक कह सकता है कि मेरा जहाजसे हिम्मत दिखाकर उतरना और फिर खतरेके प्रत्यक्ष होते हुए छिपकर भाग जाना उचित था ? परंतु जो बातें हो चुकी हैं उनकी इस तरह चर्चा ही फिजूल है। उसमें कामकी बातें सिर्फ इतनी हैं कि जो-कुछ हुआ, उसे समझ लें। उससे जो नसीहत मिल सकती हो, उसे ले लें। किस मौकेपर कौन मनुष्य क्या करेगा, यह निश्चय-पूर्वक नहीं कह सकते। उसी तरह हम यह भी देख सकते हैं कि मनुष्य के बाह्याचारसे उसके गुणकी जो परीक्षा होती है वह अधूरी होती है और अनुमान-मात्र होती है ।
जो कुछ हो, भागनेकी तैयारीमें मैं अपनी चोटोंको भूल गया। मैंने हिंदुस्तानी सिपाहीकी वर्दी पहनी। कहीं सिरपर चोट न लगे, इस अंदेशेसे सिरपर एक पीतलकी तश्तरी रख ली और उसपर मदरासियोंका लंबा साफा लपेटा। साथमें दो जासूस थे, जिनमें एकने हिंदुस्तानी व्यापारीका रूप बनाया था; अपना मुंह हिंदुस्तानीकी तरह रंग लिया था। दूसरेने क्या स्वांग बनाया था यह म भूल गया हूं। हम नजदीक की गलीसे होकर पड़ौसकी एक दुकानमें पहुंचे, और गोदाममें रक्खे बोरोंके ढेरके अंधेरेमें बचते हुए दुकानके दरवाजेसे निकल भीड़में होकर बाहर चले गये। गलीके मुंहपर गाड़ी खड़ी थी, उसमें बैठकर हम उसी थानेपर पहुंचे जहां ठहरनेके लिए सुपरिन्टेंडेंटने पहले कहा था। मैंने सुपरिन्टेंडेंटका तथा खुफिया पुलिसके अफसरका अहसान माना ।
इस तरह एक ओर जब मैं दूसरी जगह ले जाया जा रहा था तब दूसरी ओर सुपरिन्टेंडेंट भीडको गीत सुना रहा था, उसका हिंदी-भाव यह है--
"चलो, इस गांधीको हम इस इमलीके पेडपर फांसी लटका दें।" जब सुपरिन्टेंडेंटको खबर मिल गई कि मैं सही-सलामत मुकाम पर