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अध्याय १ : तूफान के चिह्न
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अड़चनोंका उत्तर मेरे पास तैयार था । और उत्तरके श्रीचित्यकी अपेक्षा हुक्मका वल तो अधिक था ही । इसलिए लाचार होकर पत्नी तथा बच्चोंने पोशाक - परिवर्तनको स्वीकार किया। उतनी ही बेबसी और उससे भी अधिक अनमने होकर भोजनके समय छुरी- कांटेका इस्तेमाल करने लगे । जब मेरा मोह उतरा तब फिर उन्हें बूट-मोजे, छुरी-कांटे इत्यादि छोड़ने पड़े । यह परिवर्तन जिस प्रकार दुःखदायी था उस प्रकार एक बार आदत पड़ जानेके बाद फिर उसको छोड़ना भी दुःखकर था; पर अब मैं देखता हूं कि हम सब सुधारोंकी केंचुलको छोड़कर हल्के हो गये हैं ।
इसी जहाजमें दूसरे सगे-संबंधी तथा परिचित लोग भी थे । उनके तथा डेकके दूसरे यात्रियोंके परिचयमें में खूब आता । एक तो मवक्किल और फिर मित्रका जहाज, घरके जैसा मालूम होता और में हर जगह जहां जी चाहता जा सकता था ।
जहाज दूसरे बंदरोंपर ठहरे बिना ही नेटाल पहुंचनेवाला था । इसलिए सिर्फ १८ दिनकी यात्रा थी । मानो हमारे पहुंचते ही भारी तूफान की चेतावनी "देने के लिए, हमारे पहुंचने के तीन-चार दिन पहले समुद्रमें भारी तूफान उठा । इस दक्षिण प्रदेशमें दिसंबर मास गरमी और बरसातका समय होता है । इस कारण दक्षिण समुद्रमें इन दिनों छोटे-बड़े तूफान अक्सर उठा करते हैं । तूफान इतने जोरका था और इतने दिनोंतक रहा कि मुसाफिर घबरा गये ।
यह दृश्य भव्य था । दुःखमें सब एक हो गये । भेद-भाव भूल गये । ईश्वरको सच्चे हृदयसे स्मरण करने लगे। हिंदू-मुसलमान सब साथ मिलकर ईश्वरको याद करने लगे । कितनोंने मानतायें मानीं । कप्तान भी यात्रियोंमें आकर ग्राश्वासन देने लगा कि यद्यपि तूफान जोरका है, फिर भी इससे बड़े-बड़े तूफानोंका अनुभव मुझे है । जहाज यदि मजबूत हो तो एकाएक डूबता नहीं । इस तरह उसने मुसाफिरोंको बहुत समझाया; पर उन्हें किसी तरह तसल्ली न होती थी । जहाजमेंसे ऐसी-ऐसी श्रावाजें निकलतीं, मानो जहाज अभी कहींन-कहीं से टूट पड़ता है-- ग्रभी कहीं छेद होता है । डोलता इतना था कि, मानो अभी उलट जायगा । डेकपर तो खड़ा रहना ही मुश्किल था । 'ईश्वर जो करे सो सही' इसके सिवा दूसरी बात किसीके मुंहसे न निकलती ।