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भोजनालय में हुआ था उनके भाई बरजोरजी एक 'सनकी आदमी थे । मैंने उनकी ख्याति सुनी थी, पर मिला न था; मित्र लोग कहते, वह 'चंक्रम ( सनकी ) हैं । घोड़ेपर दया खाकर ट्राममें नहीं बैठते । शतावधानीकी तरह स्मरण शक्ति होते हुए भी डिग्री के फेर में नहीं पड़ते । इतने आजाद मिजाज कि किसी दम-झांसे में नहीं प्राते और पारसी होते हुए भी अन्नाहारी ! पेस्तनजीकी डिग्री इतनी बढ़ी हुई नहीं समझी जाती थी; पर फिर भी उनका बुद्धि-वैभव प्रसिद्ध था । विलायत में भी उनकी ऐसी ही ख्याति थी; परंतु उनके मेरे संबंधका मूल तो था उनका अन्नाहार। उनके बुद्धि-वैभवका मुकाबला करना मेरे सामर्थ्य के बाहर था ।
आत्म-कथा : भाग २
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बंबई में मैंने पेस्तनजीको खोज निकाला । वह प्रोथोनोटरी थे । जब मैं मिला तब वह बृहद् गुजराती शब्द-कोषके काममें लगे हुए थे । दक्षिण अफ्रीका के कामें मदद लेने के संबंध में मैंने एक भी मित्रको टटोले बिना नहीं छोड़ा था । पेस्तनजी पादशाहने तो मुझे ही उलटे दक्षिण अफ्रीका न जानेकी सलाह दी। मैं तो भला पको क्या मदद दे सकता हूं; पर मुझे तो आपका ही वापस लौटना पसंद नहीं । यहीं, अपने देशमें ही, क्या कम काम है ? देखिए, अभी अपनी मातृ भाषाकी सेवाका ही कितना क्षेत्र सामने पड़ा हुआ है ? मुझे विज्ञान-संबंधी शब्दोंके पर्याय खोजना है । यह हुआ एक काम । देशकी गरीबीका विचार कीजिए । हां, दक्षिण अफ्रीका में हमारे लोगोंको कष्ट है; पर उसमें आप जैसे लोग खप जायं, यह मुझे बरदाश्त नहीं हो सकता । यदि हम यहीं राज- सत्ता अपने हाथमें ले सकें तो वहां उनकी मदद अपने-आप हो जायगी । आपको शायद मैं न समझा सकूंगा; परंतु दूसरे सेवकोंको आपके साथ ले जाने में मैं आपको हरगिज सहायता न दूंगा । ये बातें मुझे अच्छी तो न लगीं; परंतु पेस्तनजी पादशाहके प्रति मेरा प्रादर बढ़ गया। उनका देश-प्रेम व भाषा-प्रेम देखकर मैं मुग्ध हो गया । उस प्रसंगके 'बदौलत मे उनकी प्रेम-गांठ मजबूत हो गई । उनके दृष्टि-बिंदुको में ठीक-ठीक समझ गया; परंतु दक्षिण अफ्रीका कामको छोड़नेके बदले, उनकी दृष्टिसे भी, मुझे तो उसीपर दृढ़ होना चाहिए - यह मेरा विचार हुआ । देश प्रेमी एक भी अंगको, जहांतक हो, न छोड़ेगा । और मेरे सामने तो गीताका श्लोक तैयार ही था --
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