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आत्म-कथा : भाग २
raarरके कोने में एक छोटी-सी खबर छपी थी--' इंडियन फ्रैंचाइज ' ।
इसका
--: हिंदुस्तानी मताधिकार ।' खबरका भावार्थ यह था कि नेटालकी धारा-सभा के सभ्योंको चुननेका जो अधिकार हिंदुस्तानियों को था वह छीन लिया जाय ! इसके विषय में एक कानून धारासभामें पेश था और उसपर चर्चा हो रही थी | मैं उस कानूनके बारेमें कुछ न जानता था । जलसेमें किसीको इस मसविदेकी खबर न थी, जोकि भारतीयोंके अधिकारोंको छीननेके लिए तैयार हुआ था । दुला से इसका जिक्र किया। उन्होंने कहा--' इन बातोंको हम लोग क्या समझें ? हमारे तो व्यापारपर अगर कोई ग्राफत यावे तो खबर पड़ सकती है। देखिए, आरेंज फ्रो स्टेटमें हमारे व्यापारकी सारी जड़ उखड़ गई । उसके लिए हमने कोशिश भी की ; पर हम तो ठहरे अपंग । अखबार पढ़ते -- पर अपने भाव-तावकी बातें ही समझ लेते हैं । कानून कायदेकी बातोंका हमें क्या पता चले ? हमारे प्रांख-कान जो कुछ हैं, गोरे वकील हैं । 'पर यहीं पैदा हुए और अंग्रेजी पढ़े-लिखे इतने नौजवान हिंदुस्तानी जो यहां हैं ? " मैंने कहा ।
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"ग्रजी भाई साहब "3 ! अब्दुल्ला सेठने सिरपर हाथ मारते हुए कहा-" उनसे क्या उम्मीद की जाय ? वे बेचारे इन बातोंमें क्या समझें ? वे तो हमारे पासतक फटकते नहीं, और सच पूछिए तो हम भी उन्हें नहीं पहचानते । वे हैं ईसाई, इसलिए पादरियोंके पंजे में हैं और पादरी लोग गोरे, वे सरकारके ताबेदार - हैं ।"
सुनकर मेरी प्रांखें खुलीं । सोचा कि इस दल को अपनाना चाहिए । ईसाई धर्म क्या यही मानी हैं ? क्या ईसाई हो जानेसे उनका नाता देशसे टूट गया, और वे विदेशी हो गये ?
पर मुझे तो देश वापस लौटना था, अतएव इन विचारोंको मूर्त रूप न दिया । अब्दुल्ला सेठसे कहा-
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' पर यदि यह बिल ज्यों-का-त्यों पास हो गया तो श्राप लोगोंके लिए बहुत भारी पड़ेगा । यह तो भारतवासियोंके अस्तित्वको मिटा डालनेका पहला कदम है। इससे हमारा स्वाभिमान नष्ट होगा ।
”
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'जो कुछ हो। इस ' फ्रैंचाइज ' ( इस तरह अंग्रेजीके कितने ही शब्द