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अध्याय १६ : 'को जाने कलकी?'
देशी भाषामें रूढ़ हो गये थे। 'मताधिकार' कहने से कोई नहीं समझता) का थोड़ा इतिहास सुन लीजिए। इस मामले में हमारी समझ काम नहीं देती; पर हमारे बड़े वकील मि० ऐस्कंबको तो आप जानते ही हैं, वह जबरदस्त लड़वैये हैं। उनकी तथा वहांके फुरजाके इंजीनियरकी खूब चख-चख चला करती है। मि० ऐस्कंनके धारा-तभाने जाने में यह लड़ाई बाधक हो रही थी। इसलिए उन्होंने हमें हमारी स्थितिका ज्ञान कराया। उनके कहनेसे हमने अपने नाम मताधिकार-पत्र में दर्ज करा लिये और अपने तमाम मत मि० ऐस्बंकको दिये। अब आप समझ जायंगे कि हम इस मताधिकारकी कीमत आपके इतनी क्यों नहीं आंकते हैं। पर आपकी बात अब हमारी समझमें पा रही है--अच्छा तो अब आप क्या सलाह देते हैं ?"
यह बात दूसरे मेहमान लोग गौरसे सुन रहे थे। इनमें से एकने कहा-- "मैं आपसे सच्ची बात कह दूं ? यदि आप इस जहाज से न जायं और एकाध महीना यहां रह जायं, तो आप जिस तरह बतायें हम लड़नेको तैयार हैं ।"
___एक दूसरेने कहा--" यह बात ठीक है । अब्दुल्ला सेठ, आप गांधीजीको रोक लीजिए।
अब्दुल्ला सेठ थे उस्ताद आदमी। वह बोले----"अब इन्हें रोकनेका अख्तियार मुझे नहीं। अथवा जितना मुझे है उतना ही आपको भी है। पर आपकी बात है ठीक । हम सब मिलकर इन्हें रोक लें, पर यह तो बैरिस्टर हैं। इनकी फीसका क्या होगा ?"
फीसकी बातसे मुझे दुख हुआ। मैं बीच में ही बोला--
"अब्दुल्ला सेठ, इसमें फीसका क्या सवाल ? सार्वजनिक सेवामें फीस किस बातकी ? यदि मैं रहा तो एक सेवककी हैसियतसे रह सकता हूं। इन सब भाइयोंसे मेरा पूरा परिचय नहीं है; पर यदि आप यह समझते हों कि ये सब लोग मेहनत करेंगे तो मैं एक महीना ठहर जानेके लिए तैयार हूं; पर एक बात है । मुझे तो आपको कुछ देना-देना नहीं पड़ेगा; पर ऐसे काम बिना रुपये-पैसेके नहीं चल सकते। हमें तार वगैरा देने पड़ेंगे---कुछ छापना भी पड़ेगा। इधर-उधर जाना-पाना पड़ेगा, उसका किराया आदि भी लगेगा। मौका पड़नेपर यहांके वकीलोंकी भी सलाह लेनी पड़ेगी। मैं यहांके सब कानून-कायदोंको अच्छी तरह