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हुआ।" मैंने कहा----" इसमें अफसोस की बात ही क्या है, संतरी बेचारा क्या पहचानता ? उसके नजदीक तो काले-काले सब बराबर । हबशियोंको फुटपाथसे इसी तरह उतारता होगा। इसलिए मुझे भी धक्का मार दिया। मैंने तो अपना यह नियम ही बना लिया है कि मेरे जात खासपर जो भी कुछ बीते, उसके लिए कभी अदालत न जाऊं; इसलिए मुझे इसे अदालतमें नहीं ले जाना है।"
“यह तो तुमने अपने स्वभावके अनुसार ही कहा है; पर और भी विचार कर देखना । ऐसे आदमी को कुछ सबक तो जरूर सिखाना चाहिए।" यह कहकर उन्होंने उस संतरीको दो-चार बातें कहीं। मैं सारी बात न समझ सका। संतरी डच था और इच भाषामें उसके साथ बात-चीत हुई थी। संतरीने मुझसे माफी मांगी, मैं तो अपने मन में उसे माफी पहले ही दे चुका था।
पर उसके बादसे मैंने उस रास्ते जाना छोड़ दिया। दूसरे संतरी इस घटनाको क्या जानते ? मैं अपने-आप लात खाने क्यों जाऊं ? इसलिए मैंने दूसरे रास्ते होकर घूमने जाना पसंद किया। इस घटनाने वहांके हिंदुस्तानी निवासियोंके प्रति मेरे मनोभाव और भी तीन कर दिये । उनमे मैंने दो बातोंकी चर्चा की। एक तो यह कि इन कानूनोंके लिए ब्रिटिश एजेंटसे बात कर ली जाय, और दूसरी बात यह कि मौका पड़नेपर बतौर नमूनेके एक मुकदमा चलाया जाय ।
इस प्रकार मैंने भारतवासियोंके कष्टोंको पढ़कर, सुनकर तथा अनुभव करके अध्ययन किया। मैंने देखा कि आत्म-सम्मानकी रक्षा चाहनेवाले भारतवासीके लिए, दक्षिण अफ्रिका अनुकूल नहीं। यह दशा कैसे बदली जा सकती है। इसीके विचारमें मेरा मन दिन-दिन व्यग्न रहने लगा; पर अभी तो मेरा मुख्य धर्म था दादा अब्दुल्लाके मुकदमेको सम्हालना ।
मुकदमेकी तैयारी प्रिटोरियामें मुझे जो एक वर्ष मिला, वह मेरे जीवन में अमूल्य था। सार्वजनिक काम करनेकी अपनी शक्तिका कुछ अंदाज मुझे यहां हुआ, सार्वजनिक सेवाको सीखनेका अवसर मिला । धार्मिक भावना तीव्र होने लगी। और सच्ची