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अध्याय ६ : नेटाल पहुंचा
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"तब क्या आप किसी प्रकार मेरे लिए जगह नहीं कर सकते ? " अफसरने मेरी ओर देखा, हंसा और बोला-- “एक उपाय है। मेरी केबिनमें एक बैठक खाली रहती है। उसमें हम यात्रियोंको नहीं बैठने देते । पर आपके लिए मैं जगह कर देने को तैयार हूं।" मैं खुश हुआ। अफसरको धन्यवाद दिया व सेठसे कहकर टिकट मंगाया। १८९३के अप्रैल मासमें मैं बड़ी उमंगके साथ अपनी तकदीर प्राजमाने के लिए दक्षिण अफ्रीका रवाना हुआ।
पहला बंदर लामू मिला। कप्तानको शतरंज खेलनेका शौक था। पर वह अभी नौसिखया था। कोई तेरह दिनमें वहां पहुंचे। रास्तेमें कप्तानके साथ खासा स्नेह हो गया था। उसे अपनसे कम जानकार खिलाड़ीकी जरूरत थी और उसने मुझे खेलने के लिए बुलाया। मैंने शतरंजका खेल कभी देखा न था। हां, सुन खूब रक्खा था। खेलने वाले कहा करते कि इसमें बुद्धि का खासा उपयोग होता है। कप्तानने कहा--" मैं तुम्हें सिखाऊंगा।" मैं उसे मनचाहा शिष्य मिला; क्योंकि मुझमें धीरज काफी था। मैं हारता ही रहता। और ज्यों-ज्यों में हारता. कप्तान बड़े उत्साह और उमंगसे सिखाता । मुझे यह खेल पसंद आया। परंतु जहाजसे नीचे वह कभी साथ न उतरा। राजा-रानीकी चालें जाननेसे अधिक मैं न सीख सका ।
लामू बंदर आया। जहाज वहां तीन-चार घंटे ठहरनेवाला था। मैं वंदर देखने को नीचे उतरा। कप्तान भी गया था। पर उसने मुझे कह दिया था-- 'यहांका बंदर दगाबाज है। तुम जल्दी वापस आ जाना ।'
___गांव छोटा-सा था। वहां डाकघर में गया तो हिंदुस्तानी आदमी देखे । मझे खुशी हुई। उनके साथ बातें की। हवशियोंसे मिला। उनकी रहन-सहन में दिलचस्पी पैदा हुई। उसमें कुछ समय चला गया। डेकके और यात्री भी वहां आ गये थे। उनसे परिचय हो गया था। वे भोजन पकाकर आराम से खाना खाने नीचे उतरे थे। मैं उनकी नावमें बैठा। समुद्र में ज्वार भी खासा था । हमारी नावमें बोझ भी काफी था। तनाव इतने जोरका था कि नावकी रस्सी जहाजकी सीढ़ी के साथ किसी तरह न बंधती थी। नाव जहाजके पास जाकर फिर हट जाती। जहाज रवाना होनेकी पहली सीटी हुई। मैं घबराया। कप्तान ऊपरसे देख रहा था। उसने जहाज ५ मिनट रोकने के लिए कहा। जहाजके