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आत्म-कथा : भाग २
यहां बैठाया; अब तुम्हारा दिल बाहर बैठने को हुआ, तुम्हें सिगरेट पीना है, इसलिए तुम मुझे अपने पैरोंके पास बिठाना चाहते हो । मैं चाहे अंदर चला जाऊं; पर तुम्हारे पैरोंके पास बैठनेको तैयार नहीं !"
यह मैं किसी तरह कह ही रहा था कि मुझपर थप्पड़ोंकी वर्षा होने लगी और मेरे हाथ पकड़कर वह नीचे खींचने लगा। मैंने बैठकके पास लगे पीतलके सीखचोंको जोरसे पकड़े रक्खा, और निश्चय कर लिया कि कलाई टूट जानेपर भी सींखचे न छोडूंगा। मुझपर जो-कुछ बीत रही थी, वह अंदरवाले यात्री देख रहे थे। वह मुझे गालियां दे रहा था, खींच रहा था और मार भी रहा था; फिर भी मैं चुप था। वह तो था बलवान और मैं बलहीन । कुछ मुसाफिरोंको दया आई और किसीने कहा--"अजी, बेचारेको वहां बैठने क्यों नहीं देते? फिजूल उसे क्यों पीटते हो ? वह ठीक तो कहता है। वहां नहीं तो उसे हमारे पास अंदर बैठने दो।" वह बोल उठा--" हरगिज नहीं।" पर जरा सिटपिटा जरूर गया। पीटना छोड़ दिया; मेरा हाथ भी छोड़ दिया। हां, दो चार गालियां अलबत्ता और दे डाली। फिर एक हाटेंटाट नौकरको, जो दूसरी तरफ बैठा था, अपने पांवके पास बैठाया और आप खुद बाहर बैठा । मुसाफिर अंदर बैठे। सीटी बजी और घोडागाड़ी चली। मेरी छाती धक-धक कर रही थी। मुझे भय था कि मैं जीते-जी मुकाम पर पहुंच सकूगा या नहीं। गोरा मेरी ओर त्योरी चढ़ाकर देखता रहता। अंगुलीका इशारा करके बकता रहा--'याद रख, स्टैंडरटन तो पहुंचने दे, फिर तुझे मजा चखाऊंगा।' मैं चुप साधकर बैठा रहा और ईश्वरसे सहायताके लिए प्रार्थना करता रहा ।
रात हुई। स्टैंडरटन पहुंचे। कितने ही हिंदुस्तानियोंके चेहरे दीखे । कुछ तसल्ली हुई। नीचे उतरते ही हिंदुस्तानियोंने कहा--" हम आपको ईसा सेठकी दूकानपर ले जाने के लिए खड़े हैं । दादा अब्दुल्लाका तार आया था।" मुझे बड़ा हर्ष हुआ। उनके साथ सेठ ईसा हाजी सुमारकी दुकानपर गया । सेठ तथा उनके गुमाश्ते मेरे आस-पास जमा हो गये। मुझपर जो-जो बीती, मैंने कह सुनाई। सुनकर उन्हें बड़ा दुःख हुआ। अपने कड़वे अनुभव सुना-सुनाकर मुझे आश्वासन देने लगे। मैं चाहता था कि प्रोडागाड़ी-कंपनीके एजेंटको अपनी बीती सुना दू । मैंने उन्हें निट्ठी लिखी। उस गोरेने जो धमकी दी थी, सो भी