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अध्याय १३ : कुलीपनका अनुभव सप्ताह करनेका निश्चय हुआ ।
न्यूनाधिक नियमित रूपमें यह सभा होती तथा विचार-विनिमय होता। इसके फलस्वरूप प्रिटोरियामें शायद ही कोई ऐसा भारतवासी होगा, जिसे मैं पहचानता न होऊ या जिसकी स्थितिसे वाकिफ न होऊ। भारतीयोंकी स्थितिकी ऐसी जानकारी प्राप्त कर लेनेका परिणाम यह हुआ कि मुझे प्रिटोरिया-स्थित ब्रिटिश एजेंटसे परिचय करनेकी इच्छा हुई। मैं मि० जेकोब्स डिवेटसे मिला । उनके मनोभाव हिंदुस्तानियोंकी अोर थे। पर उनकी पहुंच कम थी। फिर भी उन्होंने भरसक सहायता करनेका आश्वासन दिया और कहा---" जब जरूरत हो तो मिल लिया करो।" रेलवे अधिकारियोंसे लिखा-पढ़ी की और उन्हें दिखाया कि उन्हींके कायदोंके अनुसार हिंदुस्तानियोंकी यात्रा में रोक-टोक नहीं हो सकती। उसके उत्तरमें यह पत्र मिला कि साफ-सुथरे और अच्छे कपड़े पहननेवाले भारतवासियोंको ऊपर दरजेके टिकट दिये जायंगे। इससे पूरी सुविधा तो न हुई; क्योंकि अच्छे कपड़ोंका निर्णय तो आखिर स्टेशनमास्टर ही करता न ?
ब्रिटिश एजेंटने मुझे हिंदुस्तानियोंसे संबंध रखनेवाली चिट्ठियां दिखाईं। तैयद सेठने भी ऐने पत्र दिये। उनसे मैंने जाना कि पारेंज फी स्टेटसे हिंदुस्तानियोंके पैर किस प्रकार निर्दयतासे उखाड़े गये । संक्षेपमें कहूं तो प्रिटोरियामें मैं भारतवासियोंकी आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक स्थितिका गहरा अध्ययन कर सका। मुझे इस समय यह बिलकुल पता न था कि यह अध्ययन आगे चलकर बड़ा काम आवेगा; क्योंकि मैं तो एक साल बाद अथवा मामला जल्दी तय हो जाय तो उसके पहले देश चला जानेवाला था ।
पर ईश्वरने कुछ और ही सोचा था ।
कुलीपनका अनुभव ट्रांसवाल तथा आरेंज फ्री स्टेटके भारतीयोंकी दशाका पूरा चित्र देनेका यह स्थान नहीं । उनके लिए पाठकोंको ' दक्षिण अफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास' पढ़ना चाहिए; परंतु उसकी रूप-रेखा यहां दे देना आवश्यक है ।